Sunday, September 28, 2014

तालाब और गोमती नदी

दूर कहीं वो मनचला गोमती में पत्थरों की रोरियां फेंकता हुआ,
डब-डब चंचल ध्वनियों से खुश हो ले रहा था,
आज वो घर से गुस्सा हो गया था,
न भरपेट था न ही खाली,
पर आज उसे थाली की जगह भरपूर मिली थी गाली,
पूरा दिन इधर उधर मानसिक उलझनों के साथ,
भटकता हुआ शांत घासों में सिमटा बैठा था वो,
आज गोमती से उस तालाब से जुड़ रहा था वो ,
गाँव का वो तालाब,
जहाँ बिता चुका है वो अपना बचपन,
था किनारों से हरियाली का दोआब,
इस तालाब में पहले बहुत नहाया था वो,
बेर्रा केवलगट्टा बहुत खाया था वो,
पहलीबार मछली भी तो यहीं पकड़ी थी उसने,
भैंसों के नहलाने के बहाने कई बार खुद भी नहाया था वो,
एक बार तो डूबते-डूबते बचा था वो,
छन्नू, पिंटू और भुल्ले ने ही तो बचाया था उसे,
याद उन सबकी याद,
आज बहुत एक बार फिर आ रही है,
न तो इस शहर में चैन है,
और न ही वो तालाब का किनारा,
जिसके किनारे बैठ कर कुमार को मिलता सहारा,
यहाँ भी एक सहारा है,
जो रोगियों से हर भरा है,
बड़े वाले मामा को यही तो दिखाया था,
एक महीने तक सांसों से लड़े थे वो,
आखिर में घर जाकर प्राण तो गवांये थे,
सत्य तो यही है जीवन है तो मरण भी है.
पर क्या गोमती भी मर जाएगी,
गंदे नालों के गंदे पानियों से,
पोलीथीन की बजबजाहट से,
घरों से निकलने वाले कूड़े और कचरे से,
गोमती नदी गमजदा और लाचार लग रही है,
बहाव तो है ही नही ऊपर से बदबू,
लोग इसमें नहाये कैसे, एक गोता लगाये कैसे,
काश ये मेरा तालाब होता,
अभी मार लेता इसमें एक गोता,
सुना है बड़े-बड़े लोग इसे साफ़ करायेंगें,
तो भैया गोमती नदी के भी अच्छे दिन आएंगे,
अच्छा वसुधे अब जाता हूँ,
फिर गुस्से में किसी और दिन आता हूँ.