Monday, October 13, 2014

एक तरफ पाकिस्तान की फायरिंग दूसरी तरफ ओमान का हुदहुद



हॉकी की हार से परेशां पाकिस्तान ने सीमा पर गोली पे गोली दे डाली. परेशानी ज्यादा बड़ती देख भारतीय फ़ौज ने जैसा की विदित है मुहंतोड़ जवाब दिया. पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ का इसमें कोई दोष नही क्यूंकि उनकी आजकल चल नही रही है. नवाज़ भी नही चाहते हैं हमारे मुल्क से उनके मुल्क का बैर हो. क्यूंकि उन्हें पता शेर एक कदम अगर पीछे गया तो वो और खतरनाक आक्रमण करेगा. भारत मंगल पर पहुँचने का जश्न मना रहा है. तो पाकिस्तान उस पड़ोसी की भूमिका में पूरी तरह से फिट बैठ रहा है जो न तो खेलता है और न ही खेलते हुए देख सकता है. हालाँकि वहां की आम अवाम ये विचार नही रखती है. क्यूंकि चाहे भारत हो या पाकिस्तान गरीब पहले पेट भरने की सोचता है. गौरतलब है कि आतंकियों ने भी इस गरीबी का फायदा उठाया है. जो वहां के नौजवानों को बरगलाने में कामयाब रहे हैं. एक खास मुलाक़ात में वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार हफीज चाचर ने पाकिस्तान की गरीबी को वहां के आतंकवादी कैम्पों के रौनक बढ़ाने वाला बताया था. उन्होंने ही पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त को लेकर एक बेहद दिलचस्प बात बताई थी की ये प्रान्त आजादी के वक्त पाकिस्तान का अंग नही था. जिसे बाद में पाकिस्तान ने जबरदस्ती संगीनों के साये में अपना प्रान्त बना लिया. बलोच वर्ग एक व्यापारी वर्ग माना जाता था. जैसे हमारे भारत में मारवाड़ी वर्ग. लेकिन आज की डेट में लगभग 2000 बलोच गायब हैं जिनका कोई अता पता नही है. ये वो बलोच हैं जो अलग बलूचिस्तान की मांग कर रहे थे. एक ज़माने में सबसे धनी वर्ग के ये लोग आज पाकिस्तान में सबसे गरीब हैं. पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद को जगमग करने में भारत अगर मदद न करे तो शायद ही वहां रात में उजाला हो. पोलियो उन्मूलन में पाकिस्तान की अपनी धार्मिक कट्टरत्ता जग जाहिर है. अमेरिका और दुनिया से आने वाला ऐड रोटी, कपड़ा और मकान से इतर भारत की शांति कैसे छीनी जाये उसमे खर्च हो जाता है. पाकिस्तान के बजट का 60 फीसदी सेना अपने विकास में लगाती है. हर बड़े सेना के अधिकारी अपना दूसरा घर गल्फ अथवा यूरोप देशों में रिटायरमेंट के बाद का जीवन जीने के लिए बनाये रखते हैं. रही बात भारत पर फायरिंग करने की तो ये मात्र उकसावा है. जैसे हमारे देश में बेनी वर्मा, दिग्य्विजय सिंह, ओवैसी, प्रवीण तोगड़िया और तमाम बड़ बोले नेता बेमतलब कुछ भी बोल देते हैं. जिसका वास्तविकता से कोई वास्ता नही होता है. बस इसे मीडिया अटेंशन कह सकते हैं. तो पाकिस्तान का मुख्य उद्देश्य है कश्मीर पर रार जिसकी वजह से वो पूरी दुनिया और मीडिया में अपनी पहचान बनाये रखे. अब देखा जाये तो सीजफायर का उल्लंघन करने का पाकिस्तान का इस समय एक कहावत को सच करता है. हमारे गाँव में लोग कहते हैं की सरतारी बनिया बाँट ही तौलता रहता है. उसके पास कोई काम ही नही है जिसमे वो व्यस्त हो सके. अपने घर में भी वो बम दागते रहते हैं. कभी कभी अमेरिकी ड्रोन से दो चार हो लेते हैं. यूएन में भी बे भाव वापस आ गये. कहीं न कहीं पाकिस्तान विश्व पटल पर अपनी गम्भीरता खो रहा है. वहीं भारत पीएम मोदी की अगुवाई में विकास प्रक्रिया में लगा हुआ है. अब पाकिस्तान का दिमाग शैतानी हो गया है. क्यूंकि वो पूरी तरह से खाली है. इधर मंगलयान भेज भारत दुनिया में अपनी उपस्थिति का कद और ऊँचा कर रहा है. असम और कश्मीर में आई बाढ़ से सफलता पूर्वक निपटने के बाद भारत का सामना भयंकर तूफ़ान हुदहुद से हो रहा जिसमे भी भारत ने डेढ़ लाख लोगों के विस्थापन को सहजता से अंजाम दिया. जो अपने आप में भारत की ताक़त अंदाजा लगाने को काफी है. पिछले साल फेलिन और केदारनाथ में भी भारत के जाबांजों ने अपना उत्कर्ष पेश किया था. ओमान से चले हुदहुद ने नुक्सान तो किया है पर शायद डेढ़ लाख लोगों की जान से ज्यादा नही.   

Saturday, October 4, 2014

मदिरा, सेक्स, चॉकलेट अथवा इन्टरनेट :इनमे सबसे ज्यादा क्या चाहते भारतीय  
कितना लगाव है भारतीयों को इन्टरनेट से? जवाब मिलता है बहुत ज्यादा 
एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे से पता चलता है कि दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारतीय लोग इन्टरनेट का उपयोग ज्यादा करते हैं. ये सर्वे भारत की ही संचार प्रदाता कंपनी टाटा कम्युनिकेशन ने किया है. सर्वे में 6 देशों से 9,417 लोग शामिल हुए. इसमें भारत, यूएस, यूके, सिंगापूर, जर्मनी और फ्रांस के लोगों ने भाग लिया.
32.5% भारतीय ६ से १२ घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. जबकि 14% भारतीय 12 घंटे या उससे अधिक देर इंटरनेट का उपयोग करते हैं, जो अन्य सभी देशों का दोगुना है. सिर्फ 44 प्रतिशत भारतीय मानते हैं कि वो १२ घंटे बिना इन्टरनेट चलाये रह सकते हैं- जो सर्वे में शामिल अन्य देशों के मुकाबले सबसे कम है. 53 फीसदी भारतीय इन्टरनेट न होने पर उसकी कमी महसूस करते हैं. तो वहीं 18 फीसदी काफी बेचैन हो जाते हैं. इन्टरनेट की ऐसी निर्भरता अन्य देशों के लोग नही महसूस करते हैं.
इन्टरनेट के बदले सेक्स जैसी राय भारतीयों कम ही रखते हैं. वे बिना पलक झपकाए टेलीविजन देख सकते हैं. सर्वे के मुताबिक 43 फीसदी भारतीय टेलीवजन के बदले इन्टरनेट का उपयोग करना पसंद करते हैं. लेकिन 19 फीसदी शराब के बदले इन्टरनेट और 4 फीसदी अपने कुंवारेपन के बदले इन्टरनेट का उपयोग करना पसंद करेंगे. जोकि अन्य देशों की तुलना में बेहद कम है.
इन्टरनेट के प्रति ऐसा रवैया गूगल और फेसबुक जैसी कम्पनियों के लिए बहुत ही अच्छी खबर है, जो भारत में बड़ते इंटरनेट उपभोक्ताओं को आधार बनाकर अपना विस्तार कर सकती हैं. गूगल के मैनेजिंग डायरेक्टर राजन आनंदन मानते हैं और कहते हैं २०१४ के आखिर तक भारत में इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या यूएस से भी ज्यादा हो जाएगी.
अभी जल्द ही गूगल ने एंड्राइड वन लांच किया है- ये फ़ोन गूगल के नेक्सस की तरह ही है लेकिन ये काफी सस्ता है- आशा है इस सस्ते स्मार्टफ़ोन के आने से लगभग 1 करोड़ भारतीय जो पहली बार इन्टरनेट का उपयोग करेंगे. गूगल एंड्राइड, क्रोम और गूगल अप्प्स के वाईस प्रेसिडेंट सुंदर पिचाय कहते हैं अभी भारत में लगभग एक अरब लोग इन्टरनेट का उपयोग करने से वंचित हैं.
लेकिन इन्टरनेट का ऐसा जूनून लोगों अपने आपे से बाहर भी कर सकता है. मतलब इन्टरनेट के साइड इफ़ेक्ट भी हैं. राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तांत्रिक विज्ञान के एक शोध से पता चला है की बंगलोर में 73 फीसदी अल्पयुवा मनोवृति तनाव से ग्रसित हैं और इसके पीछे जो कारन पाया गया है वो इन्टरनेट की लत है.

भारत में इसके चलते कई जगह इन्टरनेट की लत से छुटकारा पाने के लिए केंद्र भी खुल गये हैं. ऐसे केंद्र यूएस में काफी मशहूर है, लेकिन धीरे-धीरे ये कांसेप्ट भारत में भी गति पकड रहा है. ऐसे युवा जो इस लत से ग्रसित हैं वो इंटरनेट का खूब इस्तेमाल करते है, बहुतों को जब इन्टरनेट नही मिलता है तो वो पैसा चुराकर साइबर कैफ़े भी जाने में नही झिझकते हैं. भारत में इस तरह का केंद्र सबसे पहले बैंगलोर में उसके बाद दिल्ली में और अभी जल्द ही पंजाब में खोला गया है.    

Friday, October 3, 2014

हिजाब(बुर्का) पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं का शरीर गैर हिजाब वाली महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा अच्छा दिखता है-
हिजाब अथवा सिर का दुपट्टा, प्राय: पश्चिम में समस्या के प्रतीक के तौर पर पेश किया जाता है- और बहुत से मुस्लिमो द्वारा इसे धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का चिन्ह माना जाता है.
 यूरोप में पिछले कुछ वर्षों से हिजाब का विरोध तीव्र हो गया है. चीन में सरकार ने हिजाब न पहनने वाली महिलाओं को पैसा तक देने की पेशकश की है. कनाडा प्रशासित क्यूबैक प्रान्त में एक बड़ी विपक्षी राष्ट्रवादी पार्टी की मांग है कि सरकारी कर्मचारियों के हिजाब और अन्य धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए. ये विरोध असफल जरूर हो गया लेकिन लगभग ७०% क्यूबैक नागरिकों ने इसका समर्थन किया.
फिर भी तीखी बहस में मुस्लिम महिलाओ की आवाज प्राय: हार जाती है. यूके की यूनिवर्सिटी वेस्टमिन्स्टर और मलेसिया की हेल्प यूनिवर्सिटी कॉलेज द्वारा एक साझा रिसर्च में ये पाया गया है कि ऐसी मुस्लिम महिलाएं जो हिजाब पहनती हैं सामान्यतया उनका शरीर ज्यादा अच्छा दिखता है. मीडिया के संदेशों में ख़ूबसूरती के मानक पर कम भरोसा करती हैं और बिना हिजाब वाली ऐसी महिलाओं को दिखावे के अनुसार कम महत्व मिलता है.
वरिष्ठ लेखक डॉ विरेन स्वामी शोध के विज्ञप्ति में कहते हैं, यद्यपि हमे नही मानना चाहिए की हिजाब मुस्लिम महिलाओं को नकारात्मक शारीरिक छवि से बचाता है, हमारे परिणाम बताते हैं कि हिजाब पहनने वाली कुछ महिलाओं के पूर्वानुमानित ख़ूबसूरती के आदर्श को नकार देती हैं.
शोध में 587 ब्रिटिश मुस्लिम महिलाओं ने भाग लिया. वे सभी लन्दन में रहती हैं, 18 से 70 साल तक की इन महिलाओं का बॉडी मास इंडेक्स रेट 15.56 से 35.84 किलोग्राम था जो उनके द्वारा पेश किये गये रिपोर्ट के मुताबिक था. 79% अविवाहित और 76% स्नातक की हुई थी. जिनमे 36% बंगाली या बंगलादेशी, 31% पाकिस्तानी, 10% भारतीय और अरब तथा अन्य देशों की थी. सभी ब्रिटेन की नागरिक थी.
शोध का पहला और बहुत ही आसान सा सवाल था. एक इस्लामिक हिजाब को आपने कितना पहना? उत्तर 5 के पैमाने में देना था. जिसमे 1 = कभी नही और 5=हमेशा . उत्तर में 218 या 37% महिलाओं ने हिजाब कभी न पहनने का दावा किया. वहीं 369 महिलाओं ने हमेशा हिजाब पहनने की बात कही.
प्रतिभागियों के शारीरिक छवि को जांचने के लिए शोधकर्ता ने उनका वजन करवाया और इसकी तुलना उनके पसंद के आदर्श वजन से किया. उन्होंने दस विभिन्न महिलाओं की फोटोग्राफ जो अलग अलग भार वर्ग की थी को उन महिलाओं को दिया. सारी तस्वीरें ग्रे थी जिसमे रंगभेद और नस्ल का कोई विवाद नही था.
प्रतिभागियों को ऐसी दोनों तस्वीरें चूस करनी थी जो उनके शरीर से काफी मैच करती हों तथा उनको भी जैसा शरीर वो चाहती हैं. प्रतिभागियों के लिए पैमाना था 1=फिगर विथ लोवेस्ट bmi और 10=फिगर विथ हाईएस्ट bmi. इनमे से वें प्रतिभागी जो हिजाब पह्न्नते थे, शोधकर्ता के अनुसार अपने भार से ज्यादा अंतर के भार को पसंद करते हैं. धार्मिकता से ऊपर उन्होंने अपने शरीर को रखा जो कि उम्दा था.
अंत में शोधकर्ता का निष्कर्ष था की हिजाब पहनने से कोई धार्मिक भावना जाग्रति नही हो जाती है. उसने इस चीज को जानने के लिए एक अन्य शोध की जरूरत मानी है. जो अगले महीने तक आएगी.

सौजन्य से:- क्यूजेड.कॉम  अनुवाद – मनोज तिवारी  
रामपुर की रामलीला

हर साल कुंवार नवरातों में हम 7 लोगों की मंडली घर से नौ रात बाहर ही रहती थी. हम दो सगे भाई के आलावा हमारे चार चचेरे भाई जिसमे एक बोल नही पाता था और वो सबसे बड़ा भी था, साथ ही एक अपने धर्म से जिहाद किया हुआ शब्बीर. हम लोग 15 दिन पहले से ही पता लगाने लगते थे की कहाँ कहाँ रामायण वीसीआर में चलेगा. क्यूंकि हम सभी भक्तों को अरुण गोविल वाला रामायण ही पसंद था. उसके लिए चाहे हमे 3 किमी क्यों न जाना पड़े. स्कूलों की छुट्टी होने के नाते हम सभियों को घर का काम भी करना पड़ता था. जिसे हम लोग बहुत फुर्ती में निपटा देते थे. घर वाले काम भी खूब बताते थे. लेकिन हम रात भर जगने वाले उल्लुओं को उस वक्त कोई विरोध नही सूझता था. हम सारा काम निपटा देते थे. नहाना और खाना भी समय से ही करते थे. 7 बजते ही हम सब इक्कठा होने लगते थे. हर कोई बांस के डंडे के रूप में अपना एक आत्मरक्षक हथियार रखता था. फुल पतलून और गमछा कंपल्सरी कपड़ों में होते थे. बैठने के लिए एक-एक बोरा साथ लेकर जाना होता था. पखवारा तो चांदनी रात का होता था लेकिन वापस आटे वक्त अँधेरा काफी हो जाता था जिसको कम करने के लिए हम सप्तऋषी साइकिल के पुराने टायरों को जलाकर करते थे. ये टायर भी हर कोई जलता हुआ नही पकड़ कर नही चल पाता था. ये काम शब्बीर को सौंपा जाता था. आगे कौन चलेगा और पीछे कौन चलेगा ये भी एक सवाल होता था. हर कोई सबसे आगे और पीछे चलने में डरता था. आगे मैं तो सबसे पीछे दिनेश जो बोल नही पाते थे चलते थे. ये दिक्कते जाते वक्त कम आते वक्त ज्यादा आती थी. बगल वाले गाँव के रस्ते में एक जगह पुल टूटे होने की वजह से हमे घुटने घुटने तक पानी से होकर जाना पड़ता था. शांत पानी में मछलियाँ पैर छुकर गुदगुदी भी लगा जाती थी. हमारी पूरी टीम को राम के वनवास का इन्तजार रहता की कब राम जंगल निकलेंगे. क्यूंकि तड़का वध के बाद कहीं लड़ाई ही नही हो रही होती थी. चित्रकूट से कब भरत विदा हों और राम पंचवटी पहुंचे. इन सब में हमे सीरियल में रावन का इन्तजार रहता था की कब लंकेश आकर सियाहरण करेंगे और युद्ध की शुरुआत होगी. हनुमान के रोल में दारा सिंह जब लंका दहन करते हैं और पेड़ उखाड़ डालते थे. तो हम लोगों जरा सा भी शक नही होता था. ऐसा कई बार मौका आया जब किसी वजह से वीसीआर नही चल पाया और हम लोगों को उलटे पांव लौटना भी पड़ा. ऐसे मौके का फायदा हुआ रंगमंच वाली रामलीलाओं को हम मजबूरी में वहां जाते थे. वहां नगाड़े की ताल और पंडित जी के कांख कांख कर रामचरित पड़ने की स्टाइल बहुत बेकार लगती थी. कलाकारों की वाह्यात अदाकारी और फूहड़ आउटलुक हमे झल्लाने पर मजबूर कर देते थे. एक बार तो हद तब हो गयी जब दर्शक आरती के दृश्य देखने का इन्तजार कर रहे होते हैं और राम, लक्ष्मण और सीता तीनो कलाकार मंच से गायब होते हैं. तभी उसी में कोई दर्शक लघुशंका करने जाता है. उसे वहीं राम लखन और सिया बीडी पीते हुए मिल जाते हैं. वो वापस आकर कहता है सीता जी बीडी पी रही हैं. अब पब्लिक भन्ना जाती है. सीता जी का किरदार निभा रहे खेलावन को उसी में कोई ठलुआ एक थप्पड़ मार देता है. अब खेलावन अपना चीर हरण करके गुस्सा जाते हैं. वैसे खेलावन इसके अलावा सबरी, तारा और कौशल्या के साथ-साथ कुछ राक्षसों का भी किरदार निभाते हैं. कुल मिलाकर खेलावन रामपुर की रामलीला के काफी महत्वपूर्ण यूँ कहें संजीवनी थे. राम किसी तरह सीता जी को मनाते हैं और आरती शुरू होती है. वैसे रामपुर की रामलीला में सभी कलाकार स्थानीय होते हैं. अबतक की रामलीला में राम और रावण का किरदार निभाने वाले कलकार नही बदले हैं. बाकी किसी की गरीबी, किसी का स्वास्थ्य और किसी की अन्य जरूरतों ने उन्हें मजबूर किया है. यहाँ अच्छाई- बुराई को पिछले १६ सालों से हरा देती है लेकिन यहाँ के लोग अभी भी 18वी शताब्दी में जीवन यापन कर रहे हैं. ग्राम टंडवा महंथ और जिला श्रावस्ती का ये होनहार रामपुर अभी भी रामलीला के किरदारों के साथ न्याय नही कर पा रहा है.      
रामपुर की रामलीला

हर साल कुंवार नवरातों में हम 7 लोगों की मंडली घर से नौ रात बाहर ही रहती थी. हम दो सगे भाई के आलावा हमारे चार चचेरे भाई जिसमे एक बोल नही पाता था और वो सबसे बड़ा भी था, साथ ही एक अपने धर्म से जिहाद किया हुआ शब्बीर. हम लोग 15 दिन पहले से ही पता लगाने लगते थे की कहाँ कहाँ रामायण वीसीआर में चलेगा. क्यूंकि हम सभी भक्तों को अरुण गोविल वाला रामायण ही पसंद था. उसके लिए चाहे हमे 3 किमी क्यों न जाना पड़े. स्कूलों की छुट्टी होने के नाते हम सभियों को घर का काम भी करना पड़ता था. जिसे हम लोग बहुत फुर्ती में निपटा देते थे. घर वाले काम भी खूब बताते थे. लेकिन हम रात भर जगने वाले उल्लुओं को उस वक्त कोई विरोध नही सूझता था. हम सारा काम निपटा देते थे. नहाना और खाना भी समय से ही करते थे. 7 बजते ही हम सब इक्कठा होने लगते थे. हर कोई बांस के डंडे के रूप में अपना एक आत्मरक्षक हथियार रखता था. फुल पतलून और गमछा कंपल्सरी कपड़ों में होते थे. बैठने के लिए एक-एक बोरा साथ लेकर जाना होता था. पखवारा तो चांदनी रात का होता था लेकिन वापस आटे वक्त अँधेरा काफी हो जाता था जिसको कम करने के लिए हम सप्तऋषी साइकिल के पुराने टायरों को जलाकर करते थे. ये टायर भी हर कोई जलता हुआ नही पकड़ कर नही चल पाता था. ये काम शब्बीर को सौंपा जाता था. आगे कौन चलेगा और पीछे कौन चलेगा ये भी एक सवाल होता था. हर कोई सबसे आगे और पीछे चलने में डरता था. आगे मैं तो सबसे पीछे दिनेश जो बोल नही पाते थे चलते थे. ये दिक्कते जाते वक्त कम आते वक्त ज्यादा आती थी. बगल वाले गाँव के रस्ते में एक जगह पुल टूटे होने की वजह से हमे घुटने घुटने तक पानी से होकर जाना पड़ता था. शांत पानी में मछलियाँ पैर छुकर गुदगुदी भी लगा जाती थी. हमारी पूरी टीम को राम के वनवास का इन्तजार रहता की कब राम जंगल निकलेंगे. क्यूंकि तड़का वध के बाद कहीं लड़ाई ही नही हो रही होती थी. चित्रकूट से कब भरत विदा हों और राम पंचवटी पहुंचे. इन सब में हमे सीरियल में रावन का इन्तजार रहता था की कब लंकेश आकर सियाहरण करेंगे और युद्ध की शुरुआत होगी. हनुमान के रोल में दारा सिंह जब लंका दहन करते हैं और पेड़ उखाड़ डालते थे. तो हम लोगों जरा सा भी शक नही होता था. ऐसा कई बार मौका आया जब किसी वजह से वीसीआर नही चल पाया और हम लोगों को उलटे पांव लौटना भी पड़ा. ऐसे मौके का फायदा हुआ रंगमंच वाली रामलीलाओं को हम मजबूरी में वहां जाते थे. वहां नगाड़े की ताल और पंडित जी के कांख कांख कर रामचरित पड़ने की स्टाइल बहुत बेकार लगती थी. कलाकारों की वाह्यात अदाकारी और फूहड़ आउटलुक हमे झल्लाने पर मजबूर कर देते थे. एक बार तो हद तब हो गयी जब दर्शक आरती के दृश्य देखने का इन्तजार कर रहे होते हैं और राम, लक्ष्मण और सीता तीनो कलाकार मंच से गायब होते हैं. तभी उसी में कोई दर्शक लघुशंका करने जाता है. उसे वहीं राम लखन और सिया बीडी पीते हुए मिल जाते हैं. वो वापस आकर कहता है सीता जी बीडी पी रही हैं. अब पब्लिक भन्ना जाती है. सीता जी का किरदार निभा रहे खेलावन को उसी में कोई ठलुआ एक थप्पड़ मार देता है. अब खेलावन अपना चीर हरण करके गुस्सा जाते हैं. वैसे खेलावन इसके अलावा सबरी, तारा और कौशल्या के साथ-साथ कुछ राक्षसों का भी किरदार निभाते हैं. कुल मिलाकर खेलावन रामपुर की रामलीला के काफी महत्वपूर्ण यूँ कहें संजीवनी थे. राम किसी तरह सीता जी को मनाते हैं और आरती शुरू होती है. वैसे रामपुर की रामलीला में सभी कलाकार स्थानीय होते हैं. अबतक की रामलीला में राम और रावण का किरदार निभाने वाले कलकार नही बदले हैं. बाकी किसी की गरीबी, किसी का स्वास्थ्य और किसी की अन्य जरूरतों ने उन्हें मजबूर किया है. यहाँ अच्छाई- बुराई को पिछले १६ सालों से हरा देती है लेकिन यहाँ के लोग अभी भी 18वी शताब्दी में जीवन यापन कर रहे हैं. ग्राम टंडवा महंथ और जिला श्रावस्ती का ये होनहार रामपुर अभी भी रामलीला के किरदारों के साथ न्याय नही कर पा रहा है.