Friday, November 28, 2014


वक्त – बेवक्त – वक्त का तकाजा

पिछले कुछ दिनों से ज़िन्दगी की असलियत से रूबरू हो रहा हूँ. कैसे और क्यों इंसान वक्त के फेर में फंसकर निर्णय लेता है. वक्त और हालात ही इंसान को सही और गलत बनाता है. ये बात तब समझ में आती है, जब मारे थकान के लेडीज के कहने पर भी सामने वाला सहयात्री मेट्रो में सीट छोड़ने से मना कर देता है. अब देखने वाले युवक को अभद्र मानेंगे. लेकिन जब इंसान खुद भूखा होगा. तब वो दूसरे को कैसे खाने देगा. कहावत भी है भूखे भजन न होय गोपाला. जो बिलकुल सही है. इस दुनिया में 13.7 प्रतिशत लोग भूख के मारे मर जाते हैं. जो सभ्य मानवता के दम्भ को गहरी चोट देती है. दुनिया के कई ऐसे देश जहाँ लोग खाने के लिए एकदूसरे की जान भी लेने से गुरेज नही करते.  खैर हम अपनी बात बढ़ाने से पहले ऑस्ट्रलियाई ओपनर बैट्समैन फिलिप हुजेस को सर में बाउंसर गेंद लगने से हुई मौत पर उन्हें भावभीनी श्रदांजलि देते हैं. फिलिप अभी काफी युवा क्रिकेटर थे. तीन दिन बाद वो अपना जन्मदिन मनाने वाले थे. लेकिन काल को ये मंजूर नही था. लेकिन इस मौत के गैरइरादतन जिम्मेदार गेंदबाज अबोट का हाल उसी थके हारे युवक की तरह है जो सीट नही छोड़ रहा है. अबोट की इस मौत में कोई गलती नही है. लेकिन बाउंसर उन्ही के द्वारा फेंकी गयी थी. जो मौत का कारण बन गयी जबकि ये उन्होंने पहली बार नही फेंका होगा. लेकिन वक्त और हालात ने उन्हें खुद की नजरों में विलेन बना दिया. और अब आलम ये है की वो सदमे में हैं. क्रिकेट में एक बार वो पुराने जख्म हरे हो गये जब जब खेलते वक्त किसी खिलाडी की मौत हुई है. वहीं भारत में इस धार्मिक क्रिकेट को इन दिनों काफी शर्मशार होना पड़ रहा है. जो क्रिकेट के भक्तों को नागवार गुजर रहा है. लेकिन इन सबों के बीच एक बात साफ़ हुई है की आप बेईमानी करके हासिल तो कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन उस चीज को बरकरार रखना ज्यादा भाग्य मांगती है. यहाँ फिर मेरे हिसाब से वक्त तकाजा ही जिम्मेदार है. श्रीनिवासन आज दुनिया के सबसे ताकतवर क्रिकेट संस्था के मुखिया हैं. लेकिन गंदे चोली ने दामन को थामे रखा है. इसके बाद बात मोदी की क्योंकि साल-साड़ी देने लेने वाले आपस में बात करना भी मुनासिब नही समझते सार्क बैठक में नजारा कुछ यूँ ही वक्त ने परोस दिया था. यहाँ नवाज की कोई गलती नही है क्यूंकि असल में वो तो सिर्फ अपने देश के नाम के प्रधानमन्त्री हैं. ये सबको पता है वहां की मिलिट्री अपने बंदूक के नोक पर नेताओं को नचाती है. हर जगह बोलने वाले मोदी को भी पाकिस्तान को भाषण सुनाने पर उन्हें न तो वहां का वोट मिलेगा न ही सपोर्ट. वैसे भी पाकिस्तान को सीधी बात समझ में भी तो नही आती है. उधर राहुल गाँधी इसलिए परेशां हैं क्यूंकि उनकी कोई सुनता नही है. अब सरकार भी नही है की कोई सरकारी बिल वो फाड़ कर फेंक दें. सब वक्त वक्त की बात है. 

Monday, October 13, 2014

एक तरफ पाकिस्तान की फायरिंग दूसरी तरफ ओमान का हुदहुद



हॉकी की हार से परेशां पाकिस्तान ने सीमा पर गोली पे गोली दे डाली. परेशानी ज्यादा बड़ती देख भारतीय फ़ौज ने जैसा की विदित है मुहंतोड़ जवाब दिया. पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ का इसमें कोई दोष नही क्यूंकि उनकी आजकल चल नही रही है. नवाज़ भी नही चाहते हैं हमारे मुल्क से उनके मुल्क का बैर हो. क्यूंकि उन्हें पता शेर एक कदम अगर पीछे गया तो वो और खतरनाक आक्रमण करेगा. भारत मंगल पर पहुँचने का जश्न मना रहा है. तो पाकिस्तान उस पड़ोसी की भूमिका में पूरी तरह से फिट बैठ रहा है जो न तो खेलता है और न ही खेलते हुए देख सकता है. हालाँकि वहां की आम अवाम ये विचार नही रखती है. क्यूंकि चाहे भारत हो या पाकिस्तान गरीब पहले पेट भरने की सोचता है. गौरतलब है कि आतंकियों ने भी इस गरीबी का फायदा उठाया है. जो वहां के नौजवानों को बरगलाने में कामयाब रहे हैं. एक खास मुलाक़ात में वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार हफीज चाचर ने पाकिस्तान की गरीबी को वहां के आतंकवादी कैम्पों के रौनक बढ़ाने वाला बताया था. उन्होंने ही पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त को लेकर एक बेहद दिलचस्प बात बताई थी की ये प्रान्त आजादी के वक्त पाकिस्तान का अंग नही था. जिसे बाद में पाकिस्तान ने जबरदस्ती संगीनों के साये में अपना प्रान्त बना लिया. बलोच वर्ग एक व्यापारी वर्ग माना जाता था. जैसे हमारे भारत में मारवाड़ी वर्ग. लेकिन आज की डेट में लगभग 2000 बलोच गायब हैं जिनका कोई अता पता नही है. ये वो बलोच हैं जो अलग बलूचिस्तान की मांग कर रहे थे. एक ज़माने में सबसे धनी वर्ग के ये लोग आज पाकिस्तान में सबसे गरीब हैं. पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद को जगमग करने में भारत अगर मदद न करे तो शायद ही वहां रात में उजाला हो. पोलियो उन्मूलन में पाकिस्तान की अपनी धार्मिक कट्टरत्ता जग जाहिर है. अमेरिका और दुनिया से आने वाला ऐड रोटी, कपड़ा और मकान से इतर भारत की शांति कैसे छीनी जाये उसमे खर्च हो जाता है. पाकिस्तान के बजट का 60 फीसदी सेना अपने विकास में लगाती है. हर बड़े सेना के अधिकारी अपना दूसरा घर गल्फ अथवा यूरोप देशों में रिटायरमेंट के बाद का जीवन जीने के लिए बनाये रखते हैं. रही बात भारत पर फायरिंग करने की तो ये मात्र उकसावा है. जैसे हमारे देश में बेनी वर्मा, दिग्य्विजय सिंह, ओवैसी, प्रवीण तोगड़िया और तमाम बड़ बोले नेता बेमतलब कुछ भी बोल देते हैं. जिसका वास्तविकता से कोई वास्ता नही होता है. बस इसे मीडिया अटेंशन कह सकते हैं. तो पाकिस्तान का मुख्य उद्देश्य है कश्मीर पर रार जिसकी वजह से वो पूरी दुनिया और मीडिया में अपनी पहचान बनाये रखे. अब देखा जाये तो सीजफायर का उल्लंघन करने का पाकिस्तान का इस समय एक कहावत को सच करता है. हमारे गाँव में लोग कहते हैं की सरतारी बनिया बाँट ही तौलता रहता है. उसके पास कोई काम ही नही है जिसमे वो व्यस्त हो सके. अपने घर में भी वो बम दागते रहते हैं. कभी कभी अमेरिकी ड्रोन से दो चार हो लेते हैं. यूएन में भी बे भाव वापस आ गये. कहीं न कहीं पाकिस्तान विश्व पटल पर अपनी गम्भीरता खो रहा है. वहीं भारत पीएम मोदी की अगुवाई में विकास प्रक्रिया में लगा हुआ है. अब पाकिस्तान का दिमाग शैतानी हो गया है. क्यूंकि वो पूरी तरह से खाली है. इधर मंगलयान भेज भारत दुनिया में अपनी उपस्थिति का कद और ऊँचा कर रहा है. असम और कश्मीर में आई बाढ़ से सफलता पूर्वक निपटने के बाद भारत का सामना भयंकर तूफ़ान हुदहुद से हो रहा जिसमे भी भारत ने डेढ़ लाख लोगों के विस्थापन को सहजता से अंजाम दिया. जो अपने आप में भारत की ताक़त अंदाजा लगाने को काफी है. पिछले साल फेलिन और केदारनाथ में भी भारत के जाबांजों ने अपना उत्कर्ष पेश किया था. ओमान से चले हुदहुद ने नुक्सान तो किया है पर शायद डेढ़ लाख लोगों की जान से ज्यादा नही.   

Saturday, October 4, 2014

मदिरा, सेक्स, चॉकलेट अथवा इन्टरनेट :इनमे सबसे ज्यादा क्या चाहते भारतीय  
कितना लगाव है भारतीयों को इन्टरनेट से? जवाब मिलता है बहुत ज्यादा 
एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे से पता चलता है कि दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारतीय लोग इन्टरनेट का उपयोग ज्यादा करते हैं. ये सर्वे भारत की ही संचार प्रदाता कंपनी टाटा कम्युनिकेशन ने किया है. सर्वे में 6 देशों से 9,417 लोग शामिल हुए. इसमें भारत, यूएस, यूके, सिंगापूर, जर्मनी और फ्रांस के लोगों ने भाग लिया.
32.5% भारतीय ६ से १२ घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. जबकि 14% भारतीय 12 घंटे या उससे अधिक देर इंटरनेट का उपयोग करते हैं, जो अन्य सभी देशों का दोगुना है. सिर्फ 44 प्रतिशत भारतीय मानते हैं कि वो १२ घंटे बिना इन्टरनेट चलाये रह सकते हैं- जो सर्वे में शामिल अन्य देशों के मुकाबले सबसे कम है. 53 फीसदी भारतीय इन्टरनेट न होने पर उसकी कमी महसूस करते हैं. तो वहीं 18 फीसदी काफी बेचैन हो जाते हैं. इन्टरनेट की ऐसी निर्भरता अन्य देशों के लोग नही महसूस करते हैं.
इन्टरनेट के बदले सेक्स जैसी राय भारतीयों कम ही रखते हैं. वे बिना पलक झपकाए टेलीविजन देख सकते हैं. सर्वे के मुताबिक 43 फीसदी भारतीय टेलीवजन के बदले इन्टरनेट का उपयोग करना पसंद करते हैं. लेकिन 19 फीसदी शराब के बदले इन्टरनेट और 4 फीसदी अपने कुंवारेपन के बदले इन्टरनेट का उपयोग करना पसंद करेंगे. जोकि अन्य देशों की तुलना में बेहद कम है.
इन्टरनेट के प्रति ऐसा रवैया गूगल और फेसबुक जैसी कम्पनियों के लिए बहुत ही अच्छी खबर है, जो भारत में बड़ते इंटरनेट उपभोक्ताओं को आधार बनाकर अपना विस्तार कर सकती हैं. गूगल के मैनेजिंग डायरेक्टर राजन आनंदन मानते हैं और कहते हैं २०१४ के आखिर तक भारत में इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या यूएस से भी ज्यादा हो जाएगी.
अभी जल्द ही गूगल ने एंड्राइड वन लांच किया है- ये फ़ोन गूगल के नेक्सस की तरह ही है लेकिन ये काफी सस्ता है- आशा है इस सस्ते स्मार्टफ़ोन के आने से लगभग 1 करोड़ भारतीय जो पहली बार इन्टरनेट का उपयोग करेंगे. गूगल एंड्राइड, क्रोम और गूगल अप्प्स के वाईस प्रेसिडेंट सुंदर पिचाय कहते हैं अभी भारत में लगभग एक अरब लोग इन्टरनेट का उपयोग करने से वंचित हैं.
लेकिन इन्टरनेट का ऐसा जूनून लोगों अपने आपे से बाहर भी कर सकता है. मतलब इन्टरनेट के साइड इफ़ेक्ट भी हैं. राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तांत्रिक विज्ञान के एक शोध से पता चला है की बंगलोर में 73 फीसदी अल्पयुवा मनोवृति तनाव से ग्रसित हैं और इसके पीछे जो कारन पाया गया है वो इन्टरनेट की लत है.

भारत में इसके चलते कई जगह इन्टरनेट की लत से छुटकारा पाने के लिए केंद्र भी खुल गये हैं. ऐसे केंद्र यूएस में काफी मशहूर है, लेकिन धीरे-धीरे ये कांसेप्ट भारत में भी गति पकड रहा है. ऐसे युवा जो इस लत से ग्रसित हैं वो इंटरनेट का खूब इस्तेमाल करते है, बहुतों को जब इन्टरनेट नही मिलता है तो वो पैसा चुराकर साइबर कैफ़े भी जाने में नही झिझकते हैं. भारत में इस तरह का केंद्र सबसे पहले बैंगलोर में उसके बाद दिल्ली में और अभी जल्द ही पंजाब में खोला गया है.    

Friday, October 3, 2014

हिजाब(बुर्का) पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं का शरीर गैर हिजाब वाली महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा अच्छा दिखता है-
हिजाब अथवा सिर का दुपट्टा, प्राय: पश्चिम में समस्या के प्रतीक के तौर पर पेश किया जाता है- और बहुत से मुस्लिमो द्वारा इसे धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का चिन्ह माना जाता है.
 यूरोप में पिछले कुछ वर्षों से हिजाब का विरोध तीव्र हो गया है. चीन में सरकार ने हिजाब न पहनने वाली महिलाओं को पैसा तक देने की पेशकश की है. कनाडा प्रशासित क्यूबैक प्रान्त में एक बड़ी विपक्षी राष्ट्रवादी पार्टी की मांग है कि सरकारी कर्मचारियों के हिजाब और अन्य धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए. ये विरोध असफल जरूर हो गया लेकिन लगभग ७०% क्यूबैक नागरिकों ने इसका समर्थन किया.
फिर भी तीखी बहस में मुस्लिम महिलाओ की आवाज प्राय: हार जाती है. यूके की यूनिवर्सिटी वेस्टमिन्स्टर और मलेसिया की हेल्प यूनिवर्सिटी कॉलेज द्वारा एक साझा रिसर्च में ये पाया गया है कि ऐसी मुस्लिम महिलाएं जो हिजाब पहनती हैं सामान्यतया उनका शरीर ज्यादा अच्छा दिखता है. मीडिया के संदेशों में ख़ूबसूरती के मानक पर कम भरोसा करती हैं और बिना हिजाब वाली ऐसी महिलाओं को दिखावे के अनुसार कम महत्व मिलता है.
वरिष्ठ लेखक डॉ विरेन स्वामी शोध के विज्ञप्ति में कहते हैं, यद्यपि हमे नही मानना चाहिए की हिजाब मुस्लिम महिलाओं को नकारात्मक शारीरिक छवि से बचाता है, हमारे परिणाम बताते हैं कि हिजाब पहनने वाली कुछ महिलाओं के पूर्वानुमानित ख़ूबसूरती के आदर्श को नकार देती हैं.
शोध में 587 ब्रिटिश मुस्लिम महिलाओं ने भाग लिया. वे सभी लन्दन में रहती हैं, 18 से 70 साल तक की इन महिलाओं का बॉडी मास इंडेक्स रेट 15.56 से 35.84 किलोग्राम था जो उनके द्वारा पेश किये गये रिपोर्ट के मुताबिक था. 79% अविवाहित और 76% स्नातक की हुई थी. जिनमे 36% बंगाली या बंगलादेशी, 31% पाकिस्तानी, 10% भारतीय और अरब तथा अन्य देशों की थी. सभी ब्रिटेन की नागरिक थी.
शोध का पहला और बहुत ही आसान सा सवाल था. एक इस्लामिक हिजाब को आपने कितना पहना? उत्तर 5 के पैमाने में देना था. जिसमे 1 = कभी नही और 5=हमेशा . उत्तर में 218 या 37% महिलाओं ने हिजाब कभी न पहनने का दावा किया. वहीं 369 महिलाओं ने हमेशा हिजाब पहनने की बात कही.
प्रतिभागियों के शारीरिक छवि को जांचने के लिए शोधकर्ता ने उनका वजन करवाया और इसकी तुलना उनके पसंद के आदर्श वजन से किया. उन्होंने दस विभिन्न महिलाओं की फोटोग्राफ जो अलग अलग भार वर्ग की थी को उन महिलाओं को दिया. सारी तस्वीरें ग्रे थी जिसमे रंगभेद और नस्ल का कोई विवाद नही था.
प्रतिभागियों को ऐसी दोनों तस्वीरें चूस करनी थी जो उनके शरीर से काफी मैच करती हों तथा उनको भी जैसा शरीर वो चाहती हैं. प्रतिभागियों के लिए पैमाना था 1=फिगर विथ लोवेस्ट bmi और 10=फिगर विथ हाईएस्ट bmi. इनमे से वें प्रतिभागी जो हिजाब पह्न्नते थे, शोधकर्ता के अनुसार अपने भार से ज्यादा अंतर के भार को पसंद करते हैं. धार्मिकता से ऊपर उन्होंने अपने शरीर को रखा जो कि उम्दा था.
अंत में शोधकर्ता का निष्कर्ष था की हिजाब पहनने से कोई धार्मिक भावना जाग्रति नही हो जाती है. उसने इस चीज को जानने के लिए एक अन्य शोध की जरूरत मानी है. जो अगले महीने तक आएगी.

सौजन्य से:- क्यूजेड.कॉम  अनुवाद – मनोज तिवारी  
रामपुर की रामलीला

हर साल कुंवार नवरातों में हम 7 लोगों की मंडली घर से नौ रात बाहर ही रहती थी. हम दो सगे भाई के आलावा हमारे चार चचेरे भाई जिसमे एक बोल नही पाता था और वो सबसे बड़ा भी था, साथ ही एक अपने धर्म से जिहाद किया हुआ शब्बीर. हम लोग 15 दिन पहले से ही पता लगाने लगते थे की कहाँ कहाँ रामायण वीसीआर में चलेगा. क्यूंकि हम सभी भक्तों को अरुण गोविल वाला रामायण ही पसंद था. उसके लिए चाहे हमे 3 किमी क्यों न जाना पड़े. स्कूलों की छुट्टी होने के नाते हम सभियों को घर का काम भी करना पड़ता था. जिसे हम लोग बहुत फुर्ती में निपटा देते थे. घर वाले काम भी खूब बताते थे. लेकिन हम रात भर जगने वाले उल्लुओं को उस वक्त कोई विरोध नही सूझता था. हम सारा काम निपटा देते थे. नहाना और खाना भी समय से ही करते थे. 7 बजते ही हम सब इक्कठा होने लगते थे. हर कोई बांस के डंडे के रूप में अपना एक आत्मरक्षक हथियार रखता था. फुल पतलून और गमछा कंपल्सरी कपड़ों में होते थे. बैठने के लिए एक-एक बोरा साथ लेकर जाना होता था. पखवारा तो चांदनी रात का होता था लेकिन वापस आटे वक्त अँधेरा काफी हो जाता था जिसको कम करने के लिए हम सप्तऋषी साइकिल के पुराने टायरों को जलाकर करते थे. ये टायर भी हर कोई जलता हुआ नही पकड़ कर नही चल पाता था. ये काम शब्बीर को सौंपा जाता था. आगे कौन चलेगा और पीछे कौन चलेगा ये भी एक सवाल होता था. हर कोई सबसे आगे और पीछे चलने में डरता था. आगे मैं तो सबसे पीछे दिनेश जो बोल नही पाते थे चलते थे. ये दिक्कते जाते वक्त कम आते वक्त ज्यादा आती थी. बगल वाले गाँव के रस्ते में एक जगह पुल टूटे होने की वजह से हमे घुटने घुटने तक पानी से होकर जाना पड़ता था. शांत पानी में मछलियाँ पैर छुकर गुदगुदी भी लगा जाती थी. हमारी पूरी टीम को राम के वनवास का इन्तजार रहता की कब राम जंगल निकलेंगे. क्यूंकि तड़का वध के बाद कहीं लड़ाई ही नही हो रही होती थी. चित्रकूट से कब भरत विदा हों और राम पंचवटी पहुंचे. इन सब में हमे सीरियल में रावन का इन्तजार रहता था की कब लंकेश आकर सियाहरण करेंगे और युद्ध की शुरुआत होगी. हनुमान के रोल में दारा सिंह जब लंका दहन करते हैं और पेड़ उखाड़ डालते थे. तो हम लोगों जरा सा भी शक नही होता था. ऐसा कई बार मौका आया जब किसी वजह से वीसीआर नही चल पाया और हम लोगों को उलटे पांव लौटना भी पड़ा. ऐसे मौके का फायदा हुआ रंगमंच वाली रामलीलाओं को हम मजबूरी में वहां जाते थे. वहां नगाड़े की ताल और पंडित जी के कांख कांख कर रामचरित पड़ने की स्टाइल बहुत बेकार लगती थी. कलाकारों की वाह्यात अदाकारी और फूहड़ आउटलुक हमे झल्लाने पर मजबूर कर देते थे. एक बार तो हद तब हो गयी जब दर्शक आरती के दृश्य देखने का इन्तजार कर रहे होते हैं और राम, लक्ष्मण और सीता तीनो कलाकार मंच से गायब होते हैं. तभी उसी में कोई दर्शक लघुशंका करने जाता है. उसे वहीं राम लखन और सिया बीडी पीते हुए मिल जाते हैं. वो वापस आकर कहता है सीता जी बीडी पी रही हैं. अब पब्लिक भन्ना जाती है. सीता जी का किरदार निभा रहे खेलावन को उसी में कोई ठलुआ एक थप्पड़ मार देता है. अब खेलावन अपना चीर हरण करके गुस्सा जाते हैं. वैसे खेलावन इसके अलावा सबरी, तारा और कौशल्या के साथ-साथ कुछ राक्षसों का भी किरदार निभाते हैं. कुल मिलाकर खेलावन रामपुर की रामलीला के काफी महत्वपूर्ण यूँ कहें संजीवनी थे. राम किसी तरह सीता जी को मनाते हैं और आरती शुरू होती है. वैसे रामपुर की रामलीला में सभी कलाकार स्थानीय होते हैं. अबतक की रामलीला में राम और रावण का किरदार निभाने वाले कलकार नही बदले हैं. बाकी किसी की गरीबी, किसी का स्वास्थ्य और किसी की अन्य जरूरतों ने उन्हें मजबूर किया है. यहाँ अच्छाई- बुराई को पिछले १६ सालों से हरा देती है लेकिन यहाँ के लोग अभी भी 18वी शताब्दी में जीवन यापन कर रहे हैं. ग्राम टंडवा महंथ और जिला श्रावस्ती का ये होनहार रामपुर अभी भी रामलीला के किरदारों के साथ न्याय नही कर पा रहा है.      
रामपुर की रामलीला

हर साल कुंवार नवरातों में हम 7 लोगों की मंडली घर से नौ रात बाहर ही रहती थी. हम दो सगे भाई के आलावा हमारे चार चचेरे भाई जिसमे एक बोल नही पाता था और वो सबसे बड़ा भी था, साथ ही एक अपने धर्म से जिहाद किया हुआ शब्बीर. हम लोग 15 दिन पहले से ही पता लगाने लगते थे की कहाँ कहाँ रामायण वीसीआर में चलेगा. क्यूंकि हम सभी भक्तों को अरुण गोविल वाला रामायण ही पसंद था. उसके लिए चाहे हमे 3 किमी क्यों न जाना पड़े. स्कूलों की छुट्टी होने के नाते हम सभियों को घर का काम भी करना पड़ता था. जिसे हम लोग बहुत फुर्ती में निपटा देते थे. घर वाले काम भी खूब बताते थे. लेकिन हम रात भर जगने वाले उल्लुओं को उस वक्त कोई विरोध नही सूझता था. हम सारा काम निपटा देते थे. नहाना और खाना भी समय से ही करते थे. 7 बजते ही हम सब इक्कठा होने लगते थे. हर कोई बांस के डंडे के रूप में अपना एक आत्मरक्षक हथियार रखता था. फुल पतलून और गमछा कंपल्सरी कपड़ों में होते थे. बैठने के लिए एक-एक बोरा साथ लेकर जाना होता था. पखवारा तो चांदनी रात का होता था लेकिन वापस आटे वक्त अँधेरा काफी हो जाता था जिसको कम करने के लिए हम सप्तऋषी साइकिल के पुराने टायरों को जलाकर करते थे. ये टायर भी हर कोई जलता हुआ नही पकड़ कर नही चल पाता था. ये काम शब्बीर को सौंपा जाता था. आगे कौन चलेगा और पीछे कौन चलेगा ये भी एक सवाल होता था. हर कोई सबसे आगे और पीछे चलने में डरता था. आगे मैं तो सबसे पीछे दिनेश जो बोल नही पाते थे चलते थे. ये दिक्कते जाते वक्त कम आते वक्त ज्यादा आती थी. बगल वाले गाँव के रस्ते में एक जगह पुल टूटे होने की वजह से हमे घुटने घुटने तक पानी से होकर जाना पड़ता था. शांत पानी में मछलियाँ पैर छुकर गुदगुदी भी लगा जाती थी. हमारी पूरी टीम को राम के वनवास का इन्तजार रहता की कब राम जंगल निकलेंगे. क्यूंकि तड़का वध के बाद कहीं लड़ाई ही नही हो रही होती थी. चित्रकूट से कब भरत विदा हों और राम पंचवटी पहुंचे. इन सब में हमे सीरियल में रावन का इन्तजार रहता था की कब लंकेश आकर सियाहरण करेंगे और युद्ध की शुरुआत होगी. हनुमान के रोल में दारा सिंह जब लंका दहन करते हैं और पेड़ उखाड़ डालते थे. तो हम लोगों जरा सा भी शक नही होता था. ऐसा कई बार मौका आया जब किसी वजह से वीसीआर नही चल पाया और हम लोगों को उलटे पांव लौटना भी पड़ा. ऐसे मौके का फायदा हुआ रंगमंच वाली रामलीलाओं को हम मजबूरी में वहां जाते थे. वहां नगाड़े की ताल और पंडित जी के कांख कांख कर रामचरित पड़ने की स्टाइल बहुत बेकार लगती थी. कलाकारों की वाह्यात अदाकारी और फूहड़ आउटलुक हमे झल्लाने पर मजबूर कर देते थे. एक बार तो हद तब हो गयी जब दर्शक आरती के दृश्य देखने का इन्तजार कर रहे होते हैं और राम, लक्ष्मण और सीता तीनो कलाकार मंच से गायब होते हैं. तभी उसी में कोई दर्शक लघुशंका करने जाता है. उसे वहीं राम लखन और सिया बीडी पीते हुए मिल जाते हैं. वो वापस आकर कहता है सीता जी बीडी पी रही हैं. अब पब्लिक भन्ना जाती है. सीता जी का किरदार निभा रहे खेलावन को उसी में कोई ठलुआ एक थप्पड़ मार देता है. अब खेलावन अपना चीर हरण करके गुस्सा जाते हैं. वैसे खेलावन इसके अलावा सबरी, तारा और कौशल्या के साथ-साथ कुछ राक्षसों का भी किरदार निभाते हैं. कुल मिलाकर खेलावन रामपुर की रामलीला के काफी महत्वपूर्ण यूँ कहें संजीवनी थे. राम किसी तरह सीता जी को मनाते हैं और आरती शुरू होती है. वैसे रामपुर की रामलीला में सभी कलाकार स्थानीय होते हैं. अबतक की रामलीला में राम और रावण का किरदार निभाने वाले कलकार नही बदले हैं. बाकी किसी की गरीबी, किसी का स्वास्थ्य और किसी की अन्य जरूरतों ने उन्हें मजबूर किया है. यहाँ अच्छाई- बुराई को पिछले १६ सालों से हरा देती है लेकिन यहाँ के लोग अभी भी 18वी शताब्दी में जीवन यापन कर रहे हैं. ग्राम टंडवा महंथ और जिला श्रावस्ती का ये होनहार रामपुर अभी भी रामलीला के किरदारों के साथ न्याय नही कर पा रहा है.      

Sunday, September 28, 2014

तालाब और गोमती नदी

दूर कहीं वो मनचला गोमती में पत्थरों की रोरियां फेंकता हुआ,
डब-डब चंचल ध्वनियों से खुश हो ले रहा था,
आज वो घर से गुस्सा हो गया था,
न भरपेट था न ही खाली,
पर आज उसे थाली की जगह भरपूर मिली थी गाली,
पूरा दिन इधर उधर मानसिक उलझनों के साथ,
भटकता हुआ शांत घासों में सिमटा बैठा था वो,
आज गोमती से उस तालाब से जुड़ रहा था वो ,
गाँव का वो तालाब,
जहाँ बिता चुका है वो अपना बचपन,
था किनारों से हरियाली का दोआब,
इस तालाब में पहले बहुत नहाया था वो,
बेर्रा केवलगट्टा बहुत खाया था वो,
पहलीबार मछली भी तो यहीं पकड़ी थी उसने,
भैंसों के नहलाने के बहाने कई बार खुद भी नहाया था वो,
एक बार तो डूबते-डूबते बचा था वो,
छन्नू, पिंटू और भुल्ले ने ही तो बचाया था उसे,
याद उन सबकी याद,
आज बहुत एक बार फिर आ रही है,
न तो इस शहर में चैन है,
और न ही वो तालाब का किनारा,
जिसके किनारे बैठ कर कुमार को मिलता सहारा,
यहाँ भी एक सहारा है,
जो रोगियों से हर भरा है,
बड़े वाले मामा को यही तो दिखाया था,
एक महीने तक सांसों से लड़े थे वो,
आखिर में घर जाकर प्राण तो गवांये थे,
सत्य तो यही है जीवन है तो मरण भी है.
पर क्या गोमती भी मर जाएगी,
गंदे नालों के गंदे पानियों से,
पोलीथीन की बजबजाहट से,
घरों से निकलने वाले कूड़े और कचरे से,
गोमती नदी गमजदा और लाचार लग रही है,
बहाव तो है ही नही ऊपर से बदबू,
लोग इसमें नहाये कैसे, एक गोता लगाये कैसे,
काश ये मेरा तालाब होता,
अभी मार लेता इसमें एक गोता,
सुना है बड़े-बड़े लोग इसे साफ़ करायेंगें,
तो भैया गोमती नदी के भी अच्छे दिन आएंगे,
अच्छा वसुधे अब जाता हूँ,
फिर गुस्से में किसी और दिन आता हूँ.


Wednesday, August 27, 2014

मैं और वो शेर ......
पठारी क्षेत्र, नदी जो नेपाल से भारतीय सीमा में प्रवेश करती है, घना जंगल और उसका राजा शेर भी और अन्य छोटे जानवर जंगली जो आज भी सुहेलवा रेंजरी में पाए जाते हैं. पिताजी की पोस्टिंग वही थी वो वनाधिकारी थे. माता जी की मौत के बाद हम दोनों भाई-बहन अब पिताजी के साथ ही रहते थे. मेरी 10 और मेरी बहन जो मुझसे 3 साल छोटी थी. पिताजी रोज सुबह ड्यूटी पर चले जाते थे और हम दोनों भाई-बहन रसोइया भोलाराम और सुरक्षा के लिए चौकीदार श्याम सिंह के साथ पूरा दिन घर पर रहते थे. भोला राम रोजाना पानी भरने झरने के पास वाले कुएं पर जाया करते थे. मैं ऊबता था और भोला राम के साथ चलने की जिद करता लेकिन भोला राम हमे साथ इसलिए नही ले जाते की कैसे वो एक हाथ में बाल्टी पकड़ेंगे और कैसे मुझे गोद लेंगे. साथ ही साथ पिताजी का आदेश भी नही था. श्याम सिंह भी कभी-कभी पानी ले आया करते थे. उस दिन श्याम सिंह पिताजी के पास काम से गये हुए थे, घर पर हम भाई-बहन और भोला राम थे. भोला राम पानी लेने जाने वाले थे तो मैंने उनसे कहा की आज मुझे अपने साथ ले चलो पिताजी को पता नही चलेगा. भोलाराम ने बाल्टी और घर पर बहन अकेली पड़ जाएगी का हवाला देकर मुझे साथ नही ले गये. मैं मन मारकर के दरवाजे पर बैठ गया. भोला राम पानी भर कर देर तक जब वापस नही लौटे तो हमे चिंता होने लगी. हम दोनों काफी डर रहे थे, आखिर कुछ देर बाद जब श्याम सिंह घर वापस आये तो हमारी पूरी बात सुनने के वो कुएं की तरफ दौड़े मैं उनके पीछे निकल पड़ा. कुँए के पास जब हम पहुंचे तो हमने देखा की भोला राम और शेर दोनों कुएं में पड़े हैं. शेर मर चूका था पर भोला राम जिंदा थे. काफी मशक्कत के बाद श्याम सिंह ने भोलाराम को बाहर निकाला. भोला राम ने इस लड़ाई में अपने एक हाथ का पंजा लगभग गवां दिया था. पूछने पर भोला राम बोले की प्यासा शेर अचानक उनके सामने आ खड़ा हुआ. मुझे देखकर शायद वो अपनी प्यास भूलकर भूखा हो गया और मेरी ओर तेजी से बड़ा. अपनी ओर तेजी से उसे आते देख मैं डर तो रहा ही था लेकिन मेरे पास सिर्फ बाल्टी थी, जो मैंने उसके मुहं पर तेजी से दे मारा घायल शेर ने मेरे ऊपर जबर्दस्त वार किया. फिर मैंने एक हाथ से उसकी गर्दन पकड़ कर अपने साथ सीधे कुएं में कूद गया. जहाँ उसके मुंह को मैंने पानी के अंदर तबतक डुबोये रखा जबतक वो मर नही गया, इसी लड़ाई में मैंने अपना ये हाथ खो दिया. साल भर बाद जब भोला राम का हाथ ठीक हो गया जो अब पहले जैसा नही था. लेकिन मैं उन हाथों को आज जब भी छूता तो मुझे ये अनुभूति होती है कि ये वही हाथ हैं जो किसी शेर के मुहं जा घुसे थे.

Monday, August 18, 2014

सोशल मीडिया और हमारे रिश्ते...

एक जमाना था जब हमारे या तो स्कूली दोस्त होते थे या मोहल्ले वाले दोस्त होते थे. उनकी संख्या लगभग 4 से 5 होती थी. स्कूल वाले दोस्त हमारे साथ तब होते थे जब हम क्लास में साथ में पढ़ते थे या फिर इंटरवल में खेलते थे. मोहल्ले वाले दोस्त जो होते थे उनके साथ तो तितलियाँ पकड़ना लुकाछिपी खेलना और गर्मी की छुट्टियों में साथ में आम खाना और दिन भर धमा चौकड़ी में हम लगे रहते थे. ऐसे में कभी उनके घर का तो कभी हमारे घर का सीसा भी टूट जाया करता था. अब क्या है अब भाई सोशल मीडिया का जमाना है. फोटो खींचा फीलिंग, टैगिंग और कैप्शन दिया और कर दिया स्टेटस अपडेट और जाहिर कर दी दोस्ती. लेकिन क्या ये दोस्ती दिखाने का सही तरीका है. शायद सबकुछ ठीक है पर वो बात कहाँ नैसेर्गिगता और दिल का जुड़ाव शायद ही नजर आता है. हिन्दुस्तान की एक खबर के मुताबिक सोशल मीडिया के रिश्ते महज एक दिखावा है लोग सिर्फ दिखावा करते हैं. जो लोग अपने दोस्तों के तस्वीरों को अपनी प्रोफाइल पर शेयर करते हैं, उसमे भी प्राकृतिकता नही होती है. शोध के अनुसार टैग करना, लाइक करना और कमेंट करना ये बनावटी ज्यादा और सच कम होता है. लोग दिल से इसे एक्सेप्ट नही कर पाते हैं पर जब उन्हें कोई टैग कर देता है और बेस्ट बडी लिख देता है तो जैसे जबरदस्ती उनसे लाइक या कमेंट मांग रहा हो. ये बात दोस्ती के साथ साथ प्यार करने वाले कपल भी करते हैं. यहाँ तक लोग अपने गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड की तस्वीरे भी दिखावे की खातिर पोस्ट करते जिससे उनके गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड को ये यकीन रहे की वो उन्हें बेहद प्यार करते हैं. जहाँ तक मुझे लगता है तो ये शोध एक हद तक ये बात सही साबित करती है. मैंने ऐसे कई लोगों को जनता हूँ जो ऐसा करते हैं वो फेसबुक पर बहुत ही लंगोटिया यार हैं लेकिन अंतर्मन से एक दुसरे को बिलकुल भी पसंद नही करते हैं. मैंने तो कईयों को ये कहते भी सुना है की मुझे यार उसको टैग, कमेंट और लाइक सिर्फ दुनिया को दिखाने की खातिर करना पड़ता है. इसका प्रभाव भी आपको कई बार देखने को मिल जायेगा जब आप अपने किसी दोस्त को टैग करेंगे और किसी को नही करेंगे तो वो वर्चुअल दुनिया की ये खुन्नस रियल दुनिया में निकलने लगता है. एक खास फीलिंग लाने के लिए हमे अपने दोस्तों के साथ ये दिखावा करना पड़ता है. लोग फेसबुक पर इन सारी चीजों को नोटिस करते हैं रहते हैं. जो हमारे दोस्ती बनने और बिगड़ने में एक महती भूमिका ऐडा करता है. फेसबुक से भी हमे कई लोगों की दोस्ती की हद का पता लगा सकते हैं और लगाते भी रहते हैं. बहुत लोग तो ये भी कहते आपको मिल जायेंगे की आजकल तुम उसकी फोटो पर बहुत कमेंट और लाइक दाग रहे हो. ऐसे ही तमाम वाकये को समेटे ये वर्चुअल दुनिया दोस्ती के मायने को प्रभावित करती है. आशा आप टैग, लाइक और कमेंट के मोहताज़ न होकर अपने रिश्ते को बेहतर बनाते रहेंगे और उसमे फीलिंग बरकरार रखेंगे..... 

Friday, August 15, 2014

कब मिलेगी असल आज़ादी......

लाल किले का भाषण हो गया, हर सरकारी दफ्तरों और स्कूलों में झंडा फहरा दिया गया, मिठाई और फूलों के साथ देशभक्ति के तराने भी बजा लिए गये और हमने आज मना लिया आज़ादी का 68 वां जश्न. पर क्या ये सब एक दिखावा नही लगता है? क्या हर कोई इस जश्न में मन लगा रहा है? नही आप लोगों को क्या लगता है? सवाल मेरा नही है मेरी नजर का जवाब मिले तो ठीक है, नही मिलता है तो प्रश्न बना रहेगा. अभी एक मेसेज आया है आजादी के मौके पर बम्पर छूट सीधे 50% पर ये किसके लिए है. जिसके फ़ोन पर ये मेसेज आया है जो पहले वहां से पांच हज़ार से ज्यादा की खरीदारी कर चूका है. क्या इन ऑफरों का फायदा गरीबों को नही मिलना चाहिए या वो आज़ाद आज भी नही हैं. इंडिया वाले शाहरुख़ खान ने तो कह दिया की वो नया शब्द गढ़ रहे हैं. पर जो असल में इंडिया वाले हैं जो कभी भी इस देश के लिए कुर्बान होने को तैयार हैं और पहले भी इन्ही के कंधों से बन्दूक रखकर फायरिंग की जा चुकी है. क्या वो अभी इतना सक्षम हैं जो अपने तिरेंगे की लहर में खुश हो सके. आखिर कबतक गरीबों को मौके नही दिए जायेंगे या उन्हें नक्सली बनने को मजबूर किया जाता रहेगा. क्या वो लालकिले के संबोधन से अपना वास्ता बना पा रहे हैं या सिर्फ उनके झंडा फहराने के पहले का इंतजाम ही करेंगे. आये दिन अख़बारों में बलात्कार के मामले आते रहते हैं जो इस देश में इस वक्त सक्रमण की तरह फैला हुआ है. लेकिन मैं और आप भी देख और समझ रहे होंगे की बलात्कार जैसे वीभत्स मामले को हाई प्रोफाइल और लो प्रोफाइल के नजरिये से देखा जा रहा है. ऐसे क्या न्याय की उम्मीद की जाये की आरोपी को फांसी होगी या वो बाहर और बलात्कार करेगा. देश के किसान देशवासियों का पेट भरने में खुद पेट और पीठ एक किये दे रहा है. उसके खाद और डीज़ल के भाव को बढ़ाकर शहरी विकास किया जा रहा है. चीनी मिलों को ब्याज मुक्त ऋण दिया जा रहा है और किसानों को पैसा अभी तक नही दिलाया गया. अब बताइए क्या आज़ादी है सिर्फ उन्ही के लिए जो झंडा खरीदकर अपनी कारों में लगाकर चल सकते हैं. उच्चवर्ग अपनी सफलता को इतना ऊँचा कर चुका है जहाँ से नीचे के लोग गूगल मैप की तरह नजर आ रहे हैं. नीचे और ज़मीन से जुढ़े लोग ऊपर वालों की तरफ नजर गड़ाए टुकुर टुकुर देख रहे हैं की कब वो लोग ज़ूम बटन का इस्तेमाल करेंगे. तो हम लोग भी आजादी मना लेते हैं. कपड़े वाला तिरंगा ही फहरा लेते. जय हिन्द .......

Wednesday, July 30, 2014

क्या है ई-शासन.....
भारत गाँवो का देश है, देश की ७२ फीसदी आबादी आज भी गांवों में निवास करती है. वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में 638,387 गांव हैं. ये आबादी ही भारत के भविष्य को तय करती है, अत: सरकारों को अपनी नीतियों के निर्धारण में ग्रामीण विकास को सबसे ऊपर रखना होता है. ग्रामीण विकास में सामाजिक न्याय,आर्थिक विकास और न्यूनतम बुनियादी जरूरतों को पूरा करना ही किसी भी सरकार का कर्तव्य होता है. विविधता से भरे इस देश को आपस जोड़ने के लिए तकनीकी विकास बहुत जरूरी है, जिससे सरकारों को अपने नागरिकों से जुड़ने में आसानी होती है. ग्रामीण विकास की इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती है शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर, आजीविका के संसाधन, गरीबी उन्मूलन से जुड़े कार्यक्रम और बुनियादी ढांचे में सुधार की. सरकार का मुख्य उद्धेश्य ग्रामीणों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना है. इ-गवर्नेंस यानी इलेक्ट्रॉनिक गवर्नेंस जो सरकार की योजनाओं और कामकाज को ग्रामीणों तक सीधे पहुँचाने में एक कड़ी का काम कर रही है. इसमें देश में चल रही सभी योजनाओं को लोगों तक आसानी से पहुँचाने का लक्ष्य है. इस योजना का नाम राष्ट्रीय ई-शासन योजना रखा गया है. जिसमे सरकार की कोशिश ज्यादा से ज्यादा ग्रामीणों को सरकार की नीतियों और योजनाओं से जोड़ने का है. योजना का मुख्य उद्धेश्य है सरकारी योजनाओं का गाँव के लोगों तक आसानी से पहुंचाना. सुचना और तकनीकी का बेहतर इस्तेमाल करते हुए विकास के पथ पर चलने में इस योजना का महत्व और बड़ जाता है. इस योजना के अंतर्गत ऑनलाइन सेवायें –
1.आयकर
2.पासपोर्ट/वीजा
3.कंपनी मामले
4.केन्द्रीय उत्पाद शुल्क
5.पेंशन
6.भू-अभिलेख
7. सड़क परिवहन
8. सम्पति पंजीकरण
9. कृषि
10. नगर पालिकाएं
11. ग्राम पंचायतें
12.पुलिस
13.रोजगार कार्यालय
14.ई-न्यायालय

देश के भिभिन्न प्रदेशों में इस योजना को अलग- अलग नामों से जाना जाता है. उत्तर प्रदेश में इस योजना का नाम  लोकवाणी है इसी के माध्यम से प्रदेश के कई महत्वपूर्ण कामों को किया जा रहा है जिसके अंतर्गत आय प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण, निवास प्रमाण पत्र, बैंक का खाता खुलवाना, वोटर कार्ड, राशन कार्ड और किसानो को घर बैठे मंडी के भाव और उन्नत बीजों की जानकारी बेहद आसानी से प्राप्त हो जाती है. पहले जहाँ इन्ही सारी  चीजों को बनवाने में बहुत सारा भागदौड़ और पैसा लग जाता था वहीं अब ये सारे काम एक ही छत के नीचे एक ही वक्त में आसानी से हो जाती हैं. ग्रामीण सोने लाल से बात करने पर ये पता चलता है की लोकवाणी उनके लिए समय बचाने और उपयुक्त सूचनाएं उपलब्ध करवाने में काफी मददगार है. सत्यप्रकाश सिंह ग्राम प्रधान सौरुपुर श्रावस्ती से बात करने पर ये पता चलता है की ई-शासन से बहुत से कामों को करने में आसानी हुई है, अब हमारे पास ग्रामीण दौड़ा हुआ नही आता है. अब लोकवाणी के माध्यम से हमे लोगों के दस्तावेज मिलते हैं और हम उन्हें सत्यापित करके लोकवाणी केंद्र को ही वापस कर देते हैं. जिससे चीजें साफ़ सुथरी और न्याय संगत बनी रहती हैं. ई – शासन के माध्यम से अब खसरा, खेतौनी, थाने में रिपोर्ट लिखवाना, न्यायालय में अर्जी देना और ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना भी बेहद आसान हो चला है. इस योजना से सरकार को भी बहुत सारी चींजों में आसानी हुई है जैसे लोगों का रिकॉर्ड बनाने में, लोगों के अधिकार और हक सही लोगों के हाथो तक पहुँचाने में और तमाम जानकारी जन जन तक पहुँचाने में भी ये योजना सरकार की मदद करती है.

Friday, July 18, 2014

हमारा पहला टकराव तंत्र से भाग -2


दिन भर इन्तजार करते हुए लगातार दिमाग एक बात सोचता रहता था कि इस देश का कानून वास्तव में अँधा है. पॉवर और सोर्स बाज़ी इसके दो नमूने हैं, जो इसे मजाक और काफी जटिल बनाते हैं. भारतीय पुलिस दुनिया के सबसे भ्रष्ट तंत्र में आती है इसका नमूना पुलिस ने इस मामले में भी पेश किया. जैसे ही थाना परिसर में मैं पहुंचा एक तीन तारे वाले ने मुझे धमकी देते हुए वहां से जाने को कहा, मेरे बाकी दोस्त रस्ते में थे जो पहुँच रहे थे. मेरे मिलने के निवेदन को भी उस दरोगा न ठुकरा दिया. धीरे धीरे हमारे दोस्तों की संख्या बढ़ रही थी. मामला उतना बाधा नही था जितना पुलिस वाले बोल रहे थे. मुझे गुस्सा इस बात की लग रही थी जो पुलिस ने बिना दुसरे पक्ष की बात सुने उन्हें मुलजिम बना कर ले आई थी. शाम ढल रही थी, एक दोस्त की मां भी वहीं आ गयी थी जो काफी परेशां थी. एकलौता बेटा जिससे सारी उम्मीदें ऊपर से लड़का पुलिस कस्टडी में इससे बुरा एक मां के लिए और क्या हो सकता है. एस ओ के आने इन्तजार हो रहा था जो कहीं बाहर निकले हुए थे. कुछ सिपहियों की काना फूसी से पता चला की उनके आते ही हो सकता है इन लोगों को छोड़ दिया जाये. एस ओ लगभग 8 बजे आये और उन्होंने ऊपरी दबाव का हवाला देते हुए अपनी बात रखी की रेखा जी मान नही रही हैं. लेकिन कुछ देर बाद एस ओ के जाते ही हमारे दोस्तों को छोड़ दिया गया. हम लोग काफी खुश थे और वहां से निकल पड़े. ये वक्त था जो काफी शुकून दे रहा था हम लोग खाना खाने निकले. खाना आर्डर करते ही विशाल का फ़ोन आया जो उठाने पर पता चला की थाने से फ़ोन आया है की सब लोग वापस आ जाओ. हम सब चकित थे फिर विशाल को मना करते हुए खाने पर जुट गये दिन भर की भूंख को शांत करने में. लेकिन जब नीतीश और नीरज लगातार फ़ोन करने लगे तो लगा शायद सच में बुलाया जा रहा है. खाना खा कर हम लोग महानगर थाने में पहुंचे जहाँ से एस. ओ. उन लोगों को रात भर गाजीपुर थाने में रुकने को बोल रहा था. पुलिस का कहना था वो सुबह 4 बजे उन्हें यहाँ से छोड़ देंगे. अब बचे हम तो हमने दरोगा से पूछा की हम भी यहाँ रुक सकते की नही तो वो बोले जैसी तुम्हारी इच्छा तो हम भी रुक गये. थाने में पहली बार वो भी बिना किसी जुर्म के एक खास पल को जीने की बेताबी मेरे दिल जरा सा भी खौफ नही चेहरे पर लगातार हंसी जो मेरे दोस्तों के भारी मन को हल्का कर रही थी. १२ बाई 4 के कमरे में हमे रात गुजारनी थी. कमरे में 3 से 4 कंप्यूटर थे, जो सब ऑन थे. एक कूलर और 3 कुर्सियां साथ में एक दरी जिसपर सोने की इजाज़त थी. संघर्ष और नाराजगी के इस लम्हे में भी मुझे मजा आ रहा था क्यूंकि मैं पाक साफ़ था फिर भी उन लोगों के साथ मैं था उनलोगों को भी मौज आ रही थी. पता नही क्यूँ आज क्रांति कारी होने का एहसास हो रहा था. भगत सिंह और चंद्रशेखर की याद रही थी. धीरज पाल को आज अरविन्द केजरीवाल की याद आ रही थी आज उन्हें पता चल रहा था की सिस्टम से लड़ना इतना आसान काम नही है. अचानक एक महिला पुलिस पर नजर पड़ी जो ड्यूटी पर थी. बमुश्किल एक थाने में 4 से ५ ही महिला पुलिस होती बाकी पुरुषों का ही बोलबाला होता है. उनका इन पुरुष साथियों के साथ काम करना काफी मुश्किल होता है ये उनके चेहरे को देखकर मुझे साफ़ पता चला रहा था. उन्हें कुर्शी पर ही सोना होता है और साथ ही साथ उन्हें अपने पुरुष सहकर्मी के मजाक भरी बातों को अवॉयड करना होता है. पुरुष पुलिस आपस में गाली गलौच और घटिया मजाक करते रहते हैं जो उन महिलाओं को मजबूरी में सुनना पड़ता है. ये काफी जटिल होता है जब आप किसी चीज को पसंद नही करते हैं और वही आपके सामने या साथ में घटित हो रहा हो. वैसे दुनिया के सबसे भ्रष्ट तंत्र से आपको अच्छे मजाक की उम्मीद भी नही होनी चाहिए. आज हम पांच लोग एक अलग ही कश्म्कस से गुजर रहे थे और पैसा और पॉवर की ताकत से रूबरू हो रहे थे. कोई जुर्म नही फिर भी फंस जाना युवाओं को उकसाता है. वो युवा चाहे कश्मीर के हों या फिर लखनऊ के हों. आज ये बात भी महसूस हो रही थी की बुरे वक्त कि चोट हमे बुरे कर्म की तरफ धकेलने के लिए जिम्मेदार भी हो सकती है. कश्मीर घटी के युवा क्यूँ बात को हल नही मानते हैं और बन्दूक से अपनी बात मनवाना चाहते हैं क्यूंकि उनकी आवाज को सुनने की जगह दबाने की कोशिश की गयी जो सरासर गलत है. अपने अधिकार की खातिर लड़ना बेमानी नही है. न जाने क्यूँ आज हम खुद को आतंकवादियों के करीब पा रहे थे. धीरे धीरे रात कट रही थी और हमारी सोच फैलती जा रही थी कभी हम महिला कर्मी की मजबूरी तो कभी उस धोखेबाज महिला कर्मी की कारगुजारी को कोस रहे थे. कुछ ख़ास लोगों को मौके पर खामोश रहना भी आज टीस रहा था मनमोहन सिंह की याद आ रही थी. फिर उस दिन का चक्र हमे समय की औकात का अंदाजा लगवा रहा था. माना हम तो पढ़े लिखे लोग हैं तो पुलिस हमे हल्के में नही ले रही थी लेकिन उन गरीबों के ये पुलिस क्या करती होगी इसका अंदाजा आज हम बखूबी समझ रहे थे. आखिर कार सुबह पिकनिक जैसा माहौल था जो किसी भी मामले को दरकिनार कर रहा था. बस बात वहां से निकलने की बची थी जो जल्द ही पूरी होने की उम्मीद थी. जैसे जैसे सूर्य अपनी रौशनी बड़ा रहा था वक्त आज़ाद होने का निकट आ रहा था क्यूंकि नियम भी 24 घंटे से ज्यादा रोकने के खिलाफ था. तो लगभग २:30 बजे एस. ओ. ने हमे वहां से जाने का आदेश दिया. हम सब में मनो ख़ुशी की लहर जैसे दौड़ पड़ी और भूख मानो अपने चरम पर आ गयी हम सब वहां से निकलते हैं. तो ये रही थाने में बिताया गया अपने आप में एक अनोखा पल जो तह ज़िन्दगी ज़हन में बना रहेगा. यादगार रात और यादगार पल जीवन को रोचक बनाते हैं और बार बार नही आते हैं.

Wednesday, July 9, 2014

हमारा पहला टकराव तंत्र से ..... भाग -1 


कहते हैं ज़िन्दगी में  समय के  गर्भ का कोई अल्ट्रासाउंड नही होता है. वक्त कब कौन सा करवट ले ले इसका हम अंदाजा तक नही लगा सकते हैं. हम कभी कभी कर कुछ और रहे होते हैं और घट कुछ और जाता है, साथ ही साथ छप कुछ और जाता है. हमारा प्लान कुछ और होता है और हमको करना कुछ और ही पड़ जाता है. लगभग 15 दिन की छुट्टी बिताकर गाँव से लखनऊ की कूच सुबह 8 बजे करते वक्त अपने दोस्तों को 11बजे तक मिलने का वादा करते हुए अपनी 160 किलोमीटर की मैराथन यात्रा शुरू कर देता हूँ. रास्ता बादलों और मामा के गुस्से की गरज में कट रही थी. मामला वाटर कूलर महंगा लगवा लेने का था साथ उनसे बिना पूछे हुए पैसे का पेमेंट भी कर दिया गया था जो लगभग 76000 था. जो मेरे हिसाब से भी महंगा था और उनका गुस्सा होना लाजिमी था. लेकिन मैं कुछ बोल नही सकता था क्यूंकि भाई को सिर्फ मामा ही डांट सकते थे और मेरे हिसाब से सही ही था. जैसे जैसे हम रामनगर से आगे निकले उनको गुस्सा घाघरा के बहाव में बह चुका था. लगभग 11:30 बजे हम लखनऊ पहुँच गये जहाँ दफ्तरों का निपटाते निपटाते 3 बज गये. खाना आर्डर करने से पहले २:38 पर उन लोगों की आखिरी कॉल आई थी और वो लोग मुझे कैमरे के साथ आने को बोल रहे थे. मैंने उनसे 30 मिनट का वक्त माँगा था. कहना खाने के बाद जब हम मामा से विदा लेकर रूम की तरफ बड़े और उनलोगों को कॉल करना शुरू किया तो उनके नंबर स्विच ऑफ बताने लगे थे. फिर मैंने उन चारो के नंबर पर कॉल किया लेकिन वो सब स्विच ऑफ की मुद्रा में थे. मैं कमरे की तरफ बढता जा रहा था और दिमाग में चीजों का मतलब निकाल रहा था की नंबर स्विच ऑफ क्यूँ जा रहा है. एकबारगी मुझे लगा की वो सब गिरफ्तार तो नही कर लिए गये. क्यूंकि वो लेडीज बाबू और उसके दो सहायक पिछली बार जब हम भी थे साथ में तो उनका टोन थोड़ा हाई था. जो बवाल करवा सकता था. मैं रूम के अन्दर गुसा तो लगा की मैं बहुत तन्हा हूँ यहाँ तो बहुत अकेला हूँ. बैग रखते हुए दिमाग को स्थिर करने की कोशिश कर रहा था जो हो नही रहा था. मैंने बिना कपड़े बदले विकास भवन का ऑटो पकड़ कर वहां पहुंचा वक्त था 4 बजे का बहुत कम लोग बचे थे जो अपनी दिन भर की बातों में मशगूल थे, लेकिन उनके दिमाग पर कोई थकावट नही थी क्यूंकि वो काम ही नही करते हैं. वहीं मिले सीडीओ के चपरासी ने बताया उन चार लड़कों को पुलिस गाजीपुर थाने में ले गयी है. मुझे जो अंदेशा था वही सन्देशा मिला. एक दोस्त जो काफी मददगार रहा और मेरे एक काल पर वो खुद और अपनी बाइक लेकर आ गया और हम थाना गाजीपुर के लिए निकल पड़े. वैसे अपने कसबे के थाने में हम स्चूली दिनों में घूम चुके हैं थाना देखने गये थे एक दोस्त के साथ कि कैसा होता है. आज दरोगा से बात करनी थी मन में हडबडाहट थी की क्या बोले. वहां पहुँचने पर एक सिपाही ने पुछा क्या काम है, तो हमने पूछ लिया दरोगा कौन है यहाँ का मुझे कुछ बात करनी है यहाँ के दरोगा से. दरोगा बोला हाँ बताओ क्या बात करनी है मैं हूँ यहाँ का दरोगा. विकास भवन से आप मेरे चार दोस्तों को पकड़ कर यहाँ लाये हैं. उसने बोला हाँ तुम कौन मैंने जवाब दिया और बोल दिया मैं मनोज तिवारी इन सबका दोस्त. मैंने पुछा क्या किया था जो आप इन्हें यहाँ ले आये. उसने कहा नेता बन रहे हैं और अब जेल जायेंगे. हमने कहा मिल सकते हैं, उसने कहा तुम जाओ नही तुम्हे भी बैठा देंगे, हमे क्यों? तुम्हे इतनी फिक्र जो है उनकी, हमने कहा अच्छा. दो दोस्तों को इन्फॉर्म करते हुए मैं बाहर आया और पैरवी की शुरुआत की. थाने का पहला मामला था मेरा जिसमें मुझे लीड भी करना था. घरवालों से मदद नही ले सकता था अपने दोस्तों से ही उम्मीद थी. हालाँकि मुझे ये पता था और मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ की उन्हें फंसाया जा रहा था. 

Monday, June 9, 2014

बदलता वक्त
वक्त किसी के लिए न तो रुकता है न ही किसी का इन्तजार करता है. ये सिर्फ वक्त वालों के साथ रहता है. आप चाहे लाख कोशिश करलें इसे आप बदल नही सकते हैं. जो वक्त के साथ कदम ताल नही मिला पाया है उसका वक्त जाना पक्का है. चाहे आप राजनीती में अडवाणी को लें या मोदी को कोई दोनों वक्त की परिभाषा को सार्थक करते हैं. एक समय था जब अडवाणी के प्रशंसक उन्हें अपने खून का तिलक लगा देते थे. लेकिन जब समय बदला तो आज उनसे जूनियर मोदी उनके सामने प्रधानमंत्री का शपथ ले रहे थे. कहने का मतलब वक्त ने अडवाणी को ख़ारिज कर दिया और मोदी के साथ हो चला. यही हाल फ़िल्मी दुनिया का भी अमिताभ बच्चन आज भी उतने ही पॉपुलर हैं जितना की वो सन 80 में हुआ करते थे. उनके साथ का कोई भी अभिनेता आज इस मुकाम पर नही है. ऐसे ही अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी के साथ हुआ है. आज जहाँ सुनील शेट्टी को काम के लाले पड़े हैं वहीं अक्षय कुमार साल भर में मिलाकर 3 से 4 फिल्में देते रहते हैं. इन दोनों में बस इतना फ़र्क है की अक्षय कुमार ने खुद को वक्त के साथ बदल लिया और वही काम सुनील शेट्टी नही कर पाए. खेलों में भी ये बात लागू होती है एक जमाना था जब टीम इंडिया में सौरव गांगुली की टूटी बजती थी. दादा के नाम से मशहूर इस क्रिकेटर ने सही वक्त पर सन्यास न लेकर अपने क्रिकेट जीवन के आखिरी पलों को कड़वा कर दिया. यही हाल द्रविड़, लक्ष्मण और पोंटिंग का भी हुआ. ये रहे कुछ बढे उदाहरण जो काफी हद तक खरा उतरते हैं. लहर और वक्त के साथ चलना ज्यादा आसान रहा है वनस्पति के इसके विपरीत. वैसे परिवर्तन संसार का नियम है जो होता रहता है और हमे हमेशा नई चीजों को समझते हुए अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए. आजकल एक सबसे बढ़िया उदहारण है. वो है मोबाइल फ़ोन जो आज के वक्त में रोजाना अपडेट होती रहती है. कहाँ वो अन्टीना वाला फ़ोन आज कंप्यूटर से भी तेज और  ज्यादा काम कर रहा है. और तो और अब तो ये स्मार्ट भी हो चला है. सूचना क्षेत्र में तो क्रांति लेकर आया है ये फ़ोन फेसबुक , ट्विटर और व्हाट्सएप्प जैसे सोशल मीडिया टूल ने तो अभिवक्ति को ऐसा प्लेटफार्म दे रहे हैं जिनसे देश की राजनीति तक प्रभावित हुई है. कालिंग और मेसेजिंग को भी नये आयाम मिले हैं. लोगों ने खुद अपनी बात दुनिया के सामने रखना शुरू किया है जो दुनिया में एक नई शुरुआत है. वो चाहे मिस्र की क्रांति हो या अन्ना का मोमेंट या चाहे  दिल्ली के चुनाव में केजरीवाल का प्रचार प्रसार या फिर देश का सबसे बड़ा चुनाव और मोदी की जीत में भी सोशल मीडिया का प्रभाव रहा है. लेकिन ऐसा नही है हर कोई सोशल मीडिया पर खुद को सहज नही महसूस कर  पा रहा ये भी एक विशेषता है जो वक्त के साथ नही चल पाया या फिर वो बदलाव के मुताबिक खुद को तैयार नही कर पाया है.

कहने का सीधा मतलब है वक्त के साथ चलने में ही भलाई है. जो आज हमारी ज़िन्दगी में नई चीजें शामिल हुई हैं उनसे हमारा काम और जीवन आसान ही हुआ है. बस हमे चीजों से ताल्माले बनाकर चलना सीखना होगा.

Wednesday, June 4, 2014

बाल श्रम और कानून
होमर फलेक्स के अनुसार, बालकों द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य जो उनके पूर्ण शारीरिक विकास, न्यूनतम शिक्षा तथा आवश्यक मनोरंजन में बाधक हो, वो बालश्रम कहलाता है। बाल श्रम का अर्थ बच्चों को उत्पादन से संबंधित ऐसे लाभकारी व्यवसाय में लगाना है जिससे उनके स्वास्थ्य को खतरा हो तथा उनके विकास में बाधक हो। ये सिर्फ उद्योगों  में लगे हुए बच्चों पर ही लागू नहीं होता है। ये उन तमाम छोटे-मोटे व्यवसायिक काम जो 18 वर्ष की कम आयु वाले बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और नैतिक विकास में रूकावट डाले वो सब भी बालश्रम कानून के तहत आता है।
बाल श्रम अपने आप में एक सामाजिक कलंक है। ये समस्या सबसे पहले अन्र्तराष्टï्रीय स्तर पर 1924 मेें जेनेवा में उठायी गयी। इसी घोषणा पत्र में बच्चों के अधिकार को मान्यता देते हुए पांच सूत्री कार्यक्रम की घोषणा कर दी गई। साथ ही साथ बालश्रम को प्रतिबंधित भी कर दिया गया। 1989 में  संयुक्त राष्टï्र के सदस्यों द्वारा बालश्रम को रोकने के लिए और दण्ड के प्रावधान को लेकर हस्ताक्षर किये गये।
भारत में बाल अधिकार
बाल अधिकार अधिनियम 1933, बाल रोजगार अधिनियम 1938, भारतीय कारखाना अधिनियम 1940 ऐसे कुछ प्रावधान बालश्रम को रोकने के लिये थे। जो स्वतंत्रता पूर्व बनाये गये थे और आज भी लागू हैं। स्वतंत्रता के बाद 1952 में पारित औद्योगिक विवाद अधिनियम में भी बाल श्रम निषेध कर दिया गया। संविधान के तहत ये सुनिश्चित किया गया कि 6 से 14 वर्ष तक की आयु वालेे सभी बच्चों को मुफत शिक्षा मिलेगी। ऐसे में किसी भी बच्चे को काम पर लगाना कानूनन जुर्म माना जायेगा। राज्य का यह कर्तव्य निर्धारित किया गया कि पैसे के लालच या कमी कि वजह किसी बच्चे क ो बालश्रम के लिये मजबूर न करे।
भारत में बाल श्रम की स्थिति
कई गैर सरकारी सक्रिय संगठनों के  मुताबिक भारत में साल 2010 तक 6 करोड़ बाल मजदूर हैं। जिसमें 1 करोड़ बंधुआ मजदूर हैं, क्योंकि वो बंधुआ मजदूर के यहां पैदा हुए होते हैं। जिसमें 50 लाख ओद्योगिक कामों में लगे हुए हैं। राष्टï्रीय बाल अधिकार आयोग की वेबसाइट पर मौजूद 2001 के आकड़ों में बाल मजदूरों की संख्या 1.27 करोड़ है। देश में राष्टï्रीय बाल अधिकार आयोग के अलावा दिल्ली, बिहार और 9 राज्यों में ही बाल अधिकार आयोग है। जो पूरी तरह से सक्रिय नहीं हैं।
बाल श्रम के प्रभाव
चाय की हर छोटी दूकान पर गिलास धोने का काम और चाय देने का काम एक छोटू करता है। जिससे वह बहुत सारी चीजों से वंचित रह जाता है। शिक्षा, नैतिकता और समाजिकता जैसी महत्वपूर्ण चीजों से वो वाकिफ नहीं हो पाते हैं। बाल श्रम की वजह से गरीबी बढ़ी है। जो विकास में सबसे बड़ी बाधा है। अल्पायु में मौत या भयानक रोग से बच्चे चपेट में आ जाते हैं। आने वाली पीढ़ी को समस्याएं विरासत में मिलती हैं। देश का भविष्य इससे खराब होता है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

Monday, June 2, 2014

अनुच्छेद-370 लम्हों की खता , सदियों को सजा ॥॥॥॥॥

अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का सबसे विवादित और विशेष अनुच्छेद है, जिसे आर्टिकल 370 भी कहते हैं। इसकी वजह

से राज्य जम्मू कश्मीर को अन्य राज्यों की तुलना में अलग से संवैधानिक छूट प्राप्त है। आजादी के बाद से लेकर अब तक ये

धारा भारतीय राजनीति में हड़कम्प मचाती रही है। पूर्व प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के विशेष हस्तक्षेप से ये धारा

तैयार की गयी थी। भारतीय संविधान में ये धारा अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध सम्बन्धी भाग 21 में है। इस

धारा का सबसे ज्यादा विरोध बीजेपी और अन्य राष्टï्रवादी दल करते रहें हैं। उनकी हमेशा से ये मांग रही है कि कश्मीर से

अनुच्छेद 370 को पूरी तरह से खत्म किया जाये और पूरे देश में एक समान नागरिकता का संविधान लागू किया जाए। बीजेपी

ने तो इसे अपने हर चुनावी घोषणा पत्र में भी शामिल किया है।
1947 में अनुच्छेद 370 का खाका शेख अब्दुल्ला ने तैयार किया था जिनको पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू और कश्मीर के राजा हरि

सिंह ने कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। अब्दुल्ला चाहते थे कि धारा 370 स्थायी रूप से लागू हो। लेकिन नेहरू ने

इसे नकार दिया था। 1965 तक कश्मीर में राज्यपाल को सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था।

हालांकि उस समय नेहरू को छोड़कर लगभग सारे लोग इस अनुच्छेद के खिलाफ थे। भीमराव अम्बेडकर भी इससे नाखुश

थे। ये सिर्फ 10 सालों तक लागू किया गया था। जिसे बाद में एक खास वर्ग और वोट बैंक की राजनीति को साधने के चक्कर

में सरकारें बढ़ाती गयीं।

क्या विशेष है अनुच्छेद 370ï में ?

धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून

बनाने का अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से सम्बन्धित कानून को लागू करवाने के लिये केन्द्र को राज्य सरकार का

अनुमोदन चाहिये। इसी विशेष दर्जे के कारण जम्मू कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती। इस कारण

राष्टï्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है। 1976 का शहरी भूमि कानून भी वहां लागू नहीं

होता है। इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि खरीदने का   अधि

कार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते। धारा 360 जिसके तहत वित्तीय

आपातकाल लगाने का प्रावधान है, लेकिन ऐसा कश्मीर में नहीं होता।

विशेष अधिकार -

जम्मू कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है। उनका राष्टï्रध्वज अलग होता है। विधानसभा का कार्यकाल 6

वर्षों का होता है। वहां भारत के राष्टï्रध्वज या राष्टï्रीय प्रतीक का अपमान करने पर कोई अपराध नहीं माना जाता है। भारत के

सुप्रीम कोर्ट का आदेश राज्य में मान्य नहीं है। ससंद सिर्फ सीमित क्षेत्रों में ही कानून बना सकती है। जम्मू कश्मीर की महिला

अपने राज्य से बाहर शादी करती है तो उसे कश्मीर की नागरिकता गवांनी पड़ती है। लेकिन अगर वहीं वो किसी पाकिस्तान क

े नागरिक से शादी करती है तो उस पाकिस्तानी को वहां की नागरिकता मिल जायेगी। आरटीआई, आरटीई और कैग वहां

लागू नहीं है। एक मायने में भारत का कोई भी कानून वहां नहीं लागू होता है।  कश्मीर में महिलाओं पर शरियत लागू है। वहां

पंचायती राज नहीं है। चपरासी को 2500 रूपये ही मिलते हैं , हिंदू-सिख अल्पसख्यकों को 16 प्रतिशत आरक्षण भी नहीं प्राप्त

है। कश्मीर में रहने वाले पाकिस्तानी को भारत की नागरिकता भी मिल जाती है जबकि अन्य भारतीय वहां जमीन तक नहीं ले

सकता है।

Sunday, June 1, 2014


सारा आम तो कैटरीना ले गयी ।।।।।।


जून शुरू होने को है और इसबार एक भी दशेहरी आम अब तक खाने को नहीं मिला है। फलों का राजा आम जो हर आम और खास की हथेली तक पहुंचता है। लेकिन अभी इसका सभी को इन्तजार है। पता नहीं कहां है वो मलिहाबादी जो अभी तक हमारे शहर नहीं पहुंचा है। बड़ी उम्मीद है इस बार भी हर बार की तरह कि जब तुम आओगे तो गर्मी घटाओगे। अभी तो खासा हरे हो खट्टे भी हो, लेकिन जब तुम्हारा रंग हल्का पीला और लाल होने लगता है और तुम मीठे हो जाते हो। तो तुमको देखकर मुंह में सिर्फ पानी आता है, डाल की तोड़ी हुई दशहरी जब बाल्टी भर पानी में डालकर हम आम आदमी खाना शुरू करते हैं तो उसका मजा ही कुछ और है। वो दिन आज भी बहुत याद आते हैं जब बैरिस्टर साहब के साढ़े तीन सौ बीघे वाले बाग में हम आम चुराने जाया करते थे। हमारे श्रावस्ती में ये सबसे बड़ी बाग है। वैसे बाग तो हमारे यहां भी हैं , लेकिन देशी आम की और हमें उस वक्त चस्का दशहरी का। वैसे आम तो आजकल हर जगह आपको बोतलों में मिल जायेगा।





स्लाइस, माजा, फ्रुटी और तमाम ऐसे पेय पदार्थ जो ये दावा करते हैं कि हम आपको हर मौसम में आम की कमी नहीं खलने देंगे। लेकिन क्या ऐसा सम्भव है , मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं वो स्वाद कहां बोतल वाले आम में। शाहरूख से लेकर सनी देओल तक बोतल वाले आम का प्रचार करने में लगे हैं और मेरे लिखने की वजह बनीं कैटरीना जो आम का आमसूत्र भी बता रहीं हैं। वाक्या ये हुआ मैंगो शेक मांगने पर जब सामने से आम के न होने का जवाब आता है, तो मेरा क्यों ? शायद मेरे हिसाब से लाजिमी भी था। तो जवाब मिलता है कि सारा आम कैटरीना ले गयी। शायद उसका जवाब उम्दा था। आमसूत्र यूं ही नहीं कैटरीना ने पेश कर दिया है। वैसे छोडि़ए आमसूत्र वाली कैटरीना को और याद करिए जरा अमेरिका वाली कैटरीना को जिसकी वजह से भारी तबाही मची थी। दो दिन पहले वाली आंधी ने आम और आम जन को काफी नुकसान पहुंचाया दोनों आम जमीन पर आ गये। तो कैटरीना कोई भी हो लेकर वो आम को ही जाती है। चाहे वो पेड़ वाला आम हो या फिर आम अवाम हो। कैटरीना की अदा ही खतरनाक है। तो होशियार रहें कैटरीना से।



आम की फोटो इंटरनेट से ली गयी हैं। 









Tuesday, May 27, 2014

भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी .....


जैसा कि १६ मई को १६वीं लोकसभा का परिणाम आ चुका है और देश कि जनता ने अपना नेता भी चुन लिया है और वो नेता हैं गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी . जो अब देश की कमान संभालेगे . भारी  संख्या में लोकमत जुटाकर उन्हें सत्ता हासिल हुई . पिछले ३० वर्ष का रिकॉर्ड तोड़कर उन्होंने पूर्ण बहुमत हासिल किया है. जो अबतक किसी गैर कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी जीत है . यूँ तो बीजेपी में दिग्गज और वरिष्ठ नेताओं की फ़ौज है , लेकिन इस समय बीजेपी में मोदी जैसा कद किसी भी नेता का नही है . विपक्ष और मीडिया  द्वारा उन्हें  बार बार गुजरात दंगों की वजह से निशाने पर रखता रहा है.  पर  वो असहज तो हुए परन्तु उन्होंने धैर्य बनाये रखा .सुप्रीम कोर्ट से मिले क्लीन चिट और सीबीआई द्वारा उनके के खिलाफ कोई सुबूत न मिलने की वजह से वो कुछ हद तक इस दंगे से अपना पीछा छुड़ा पाने में कामयाब रहे. माना जाता है इस चुनाव में प्रत्याशी कम मोदी ज्यादा लोकप्रिय थे और जनता ने मोदी को वोट दिया है . मोदी लहर पूरे देश में थी और मोदी ने रिकॉर्ड रैली करके इस लहर को भुना भी लिया है और अब जब वो देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले हैं , जो काफी भव्य और ऐतिहासिक होने वाला है . सार्क देशों के राष्ट्र अध्यक्ष उनके शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेंगे . थोड़ी न नुकुर के बाद इस समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री भी शरीक होंगे जो मोदी द्वारा फेंका गया पकिस्तान की तरफ  पहला पत्ता है . मोदी ने गुजरात का विकास किया है  इसका लोहा दुनिया और देश भी मानता है और इस चुनाव में मोदी को ज्यादा वोट विकास के मुद्दे की वजह से मिले हैं . युवा ,गरीब और महिलाओं को बड़ी उम्मीदे हैं मोदी सरकार से और मुद्दे सबसे जरूरी हैं जिन्हें मोदी को पूरा करना है . दिल्ली सल्तनत और गुजरात सल्तनत में बड़ा अंतर है . यहाँ पूरे देश की आशा भरी निगाहें आपकी तरफ देख रही होती हैं .जिन्हें पूरा करने के लिए मोदी को जैसी कथनी वैसी करनी भी रखनी  होगी . पूरे देश को  बड़ी उम्मीद है मोदी से और इसलिए इतनी भारी मात्रा में उन्हें जनमत भी मिला है . शिक्षा , बेरोजगारी , स्वास्थ और गरीबी देश की विकट समस्याओं में से कुछ हैं जिन्हें मोदी को हरहाल में पूरा करना है .    जो उनका स्लोगन था अबकी बार मोदी सरकार उसको उन्हें साकार करने का जिम्मा जनता ने उन्हें सौंप दिया है . जैसा सपोर्ट और जैसा माहौल उन्हें चाहिए था वो उन्हें बखूबी मिल गया न तो मजबूत विपक्ष है और न ही सरकार गिरने का डर. तो ये दोनों चीजे उन्हें कभी परेशां नही करेंगी . बस अब उन्हें अच्छे दिन लाने हैं . पूरा देश मानता है की नरेन्द्र मोदी एक कुशल राजनेता हैं ,शायद इसीलिए उन्होंने मंत्रालय की संख्या भी कम कर दी है . जहाँ लोग मनमोहन सिंह को कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री मानते थे तो वहीं मोदी को मजबूत और फैसले लेना वाला माना जाता है. अपने मुख्यमंत्रित्व काल में वो चीन के कई दौरे कर चुके हैं और ये भी माना जाता है की वो चीन से काफी प्रेरित हैं ..तो अब समय आ गया है , देश भी तैयार है. अबकी बार मोदी सरकार ......

Thursday, May 22, 2014

गाँव कनेक्शन .....
भारत एक विकासशील देश जिसकी ७० फीसदी आबादी अभी भी गांवों में रहती है . जहाँ सुबह मुर्गे की बांग से होती है , तो दोपहर पेड़ों की छाँव में बीतती है  और शाम ठंडी हवा और जुगनू की रौशनी से होती है . गावं में  रहने वाले ज्यादातर  लोग खेती  किसानी का काम करते है. यहाँ लोग अपने सपने की जुताई करते हैं , बीज उस सपने का आधार  होता है , तो खाद और पानी उसकी जान होते हैं . निराई – गुड़ाई और रखरखाव एक किसान की मोहब्बत होती है जो उसे लगातार अपने फ़सल से जोड़े  रखता है . ये सपना और प्यार अपने अंजाम पर पहुँचता है , जब हरी भरी फसल लहलहा उठती है और किसान झूम उठता है .तो ये बात थी एक ग्रामीण के सपने की . अब हम बात करते हैं गाँव की . खेत , तालाब, फसल , पशु –पक्षी जैसे गाय-भैंस ,हल ,कुदाल , ट्रेक्टर और हरे भरे पेड़ – पौधे मिलकर बना कुनबा गाँव कहलाता है .. यूँ तो दुनिया के लगभग हर देश में गाँव होते होंगे , लेकिन गांवों का देश भारत है . चिड़ियों की चहचाहट ,ठंडी हवा की छुवन, ताज़े फल और सब्जियां , गाय – भैंस का ताज़ा दूध , मोर की तान पर बारिश की उम्मीद , बिरहा गाता हुआ किसान जब अपने खेत में काट रहा होता है धान और वहीं खेत में उसकी पत्नी उसके लिए  गुड़ और लोटा भर पानी लेकर जाती है तो समझो ये गाँव का दृश्य है . ठंडियों में अलाव के किनारे जब महफ़िल सज जाये और अपनी – अपनी फसलों और पशुओं का बखान छिड़ जाये तो समझो ये गाँव की चौपाल है . चैत की दोपहरी जब बरगद या किसी बाग़ में बीते तो समझिये आप गाँव में हैं . तो ये रही गाँव की बात , स्वाभिमान , मेहनत और सम्मान हमारे देश के किसानो की खूबियाँ हैं और वो इससे कभी समझौता नही करता है .
बात जब लोकतंत्र की आती है तो ये लोग इसमें भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं . देश के किसी भी चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पोल होता है तो वो ग्रामीण भारत से होता है , शहर के लोग उस दिन छुट्टी मनाते हैं और इनके लिए ये दिन किसी पर्व से कम नही होता है .पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का नारा भी था जय जवान जय जय किसान , जो आज भी सार्थक है .. तो भारत बसता है गांवों में और हम जितने भारतवासी हैं कहीं न कहीं गांवों से जुड़े हैं , तो हम सबका बनता है गाँव कनेक्शन .....   



मनोज तिवारी 

Sunday, May 18, 2014

आखिरी भेंट..........


कहते हैं समय रुकता नही है और कुछ भी हो जाये कभी रिवाइंड नही होता है , कब क्या हो जाये इसका कोई ठिकाना भी नही है वक्त अपनी रफ़्तार से चलता रहता है और हमे जीवन में पीछे का कुछ भी सही करने का मौका नही देता है.. बचपन के बाद जवानी और बुढ़ापा अपने तय वक्त पर जरूर आते  हैं .. ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत वक्त माना जाता है वो है छात्र जीवन और जब ये अपने चरम पर हमारा साथ छोड़ता है तो मानो हम सबकुछ गंवा रहे होते है, कैंटीन,डिपार्टमेंट की सीढ़ी, यूनिवर्सिटी कैंपस की हर वो चीज़ पेड़ ,वाटर कूलर ,स्टाफ  और  क्लास की सीट वो चाहे आगे हम बैठते हो या पीछे हमारा उससे भी रिश्ता बन चूका होता है सही मायने प्यार हो जाता है हमे उन सारी चीजों जिनसे हम रोजाना रूबरू होते हैं .. अच्छा इन सब में सबसे महत्वपूर्ण हमारे टीचर और छात्र मित्र होते है , और उनसे प्यार, नफरत और कम्पटीशन सब होता है ... लेकिन जब हम एक दुसरे से जुदा हो रहे होते हैं तब सिर्फ उन्हें हम मिस कर  रहे होते हैं  न हमे उनसे कोई शिकवा होता है न ही कोई गिला दिल में वो जगह बना चुके होते हैं और हम उन्हें खोना नही चाहते हैं लेकिन वक्त की इजाजत नही है की अब हम और ज्यादा एक दुसरे के साथ बिता सके ... एक नवीन परिवार जिसे हम २ साल में बनाते हैं उसे बिखरता देख आँखों में आंसू भले न आये

 लेकिन दिल में जैसे व्याकुलता फ़ैल जाती  है , मीठा दर्द जिसे सिर्फ अंदर दबा देना है ...  
थे गिले बहुत , थी शिकायत बहुत , थी नफरत मन में तुझको लेकर बहुत ....
पर आज क्या ये हुआ जब तू जा रहा है , तो मोहब्बत जाग उठी है ....



अब शायद हम मिले हो सकता है  मिले तो टुकडो में मिले ऐसे कभी मिलना नही होगा जिस तरह हम साथ में मिलते थे चाहे वो मजबूरी रहती थी की हमे कॉलेज जाना है ... अब सबकी मंजिल अलग अलग है , हर कोई अब जीवन के उस संघर्ष जा पहुंचा जहाँ से हमारी दुनिया बदल चुकी होगी हम नौकरी , घर –परिवार इत्यादि चीजों वयस्त हो जायेंगे ... रह जायंगी तो सिर्फ यादें जिन्हें हम सिर्फ दिलों में समेटते फिरेंगे ... खूबसूरत जीवन हो , नये पथ में नयापन हो , खुल जायें वो रास्ते जिनके लिए घर से निकले तुम ...... शुभकामनाएँ......